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पागल

उम्र कुछ यूं तो नहीं कि ताज़ी हवा पीने को सुबह सड़के मांपू। महानगर में बस गया सो मन में बेचैनी लेकिन, पांव में जादू भर आया है।

सुबह सावधान घड़ी के कान में गुदगुदाने पे जगता हूं। नियमित कार्य से निबट, जेब में एक डायरी और कलम खोंस कहानी की तलाश में चल पड़ता हूं।

आज भी दबे पांव अहाता पार कर, चोरों की तरह अपना दरवाज़ा सरकाया पर ये दुबे का कुत्ता उन्ही की भांति भूककर अपनी स्वामिनी की बुराई करने लगा, जैसे कल रात भूखा सोया हो, जंगली प्रजाति का पालतू जानवर!

संभले चाल से चलता टूटे उपसड़क को पार कर मुख्य सड़क पर पांव धरते ही चौड़ा होके तेज चाल चलने लगा।
आधी उम्र पार चुके नवविवाहित प्रेमी युगल हाथ में हाथ डाले मंथर चाल से टहल रहे हैं। उचक-उचककर चलती रंगीन बालों वाली महिलाएं, टाप से सड़क को कुचलते काफूर हुई जा रही है, मैं हांफता चला जा रह हूं, इनके पीछे। इनके चाल की मादकता पुरुषों को स्त्रैण बना दे!

नज़र में इन्ही नजारों को कैद करने में बहुत आगे बढ़ निकला, आज। कब चौड़ी मुख्य सड़क छोड़ पतली गली के बीचो-बीच आ खड़ा हुआ कुछ ख़बर ही न लगी। कमज़ोर हाथ की दिशा में एक पुरानी बस्ती दिख पर रही थी। मैं कदम बढ़ाता उस ओर चल दिया..।

आज से पूर्व कभी इधर आना न हुआ था। तभी मैं ध्यान से सब देखने लगा....।
ईंट के दीवार पर कर्कट के छत, जगह-जगह बेतरतीब बंधी रस्सियों पे टंगे सुख रहे कपड़े, खुले में बर्तन-भांड धो रही महिलाएं, सूखी घास का ढ़ेर चबा रहा एक एक गधा। स्नानघर के टूटे रोशनदान में मुंडी घुसाए, आधे कमड़ लटकता एक लड़का अंदर झांक रहा था...पास ही एक आदमी हाथ में चप्पल पहने, दबे पांव इन्हीं दीवारों से सटकर बड़ी सतर्क चाल से उसकी ओर बढ़ रहा था...।

अचानक स्टीमर की कानफोडू आवाज कान में पड़ी। अब मुझे समझ आया ये बंदरगाह की बस्ती है, और आवाज़ की दिशा में बढ़ गया।
एक स्टीमर हजारों सिगरेट के कश जितना धुंआ उगलता ज़मीन की ओर बढ़ रहा था। दृश्य बड़ा भव्य था, और भयानक भी!

अब सब स्पष्ट दिखने लगा। माल ढोने वाले इधर उधर दौड़-भाग रहे थे। अपने माल की देखभाली में खड़े मूच्छर के पगड़ी पे कोई पक्षी गंदगी कर उड़ चली थी, इसलिए वो पानी से उसे साफ कर रहा था।
पुराने रस्से जहां तहां बिखरे पड़े थे। काले चमड़ी में लपेटे कुछ अस्थिपंजर बच्चे काम में मशगूल; कुछ दौड़ने-खेलने में जिनपे, पीठ पे बोड़ी लादे, उनके बाप बीच बीच में चिल्ला रहे थे।
मुझसे कोई दस हाथ दूर चमाट खाकर छटपटाता एक ठिगना छोकरा जमीन चाट-चाटकर अभद्र गाली बक रहा था...।

इन सब कोलाहल से बेखबर एक दढ़ियाल टूटी नाव में चादर बिछाकर लेटा अपनी दाढ़ी खुजा रहा था। पास एक छोटी शराब की शीशी थी। देखने से असभ्य ही जान परा। बिना जेब के चेकदार कुर्ता पहने, पेंट को डोरी के सहारे बांधे...।
मलिन सी एक खुली किताब उसके सीने पर पांव फैलाए अलसा रही थी, संभवतः जिसे वो दाढ़ी खुजाने से पहले पढ़ रहा हो।
कौतुकवस मैं उसके करीब गया। वो मेरे उपस्थिति से अनभिज्ञ अपने कार्यव्यापर में मशगूल था। उसके पास दाढ़ी खुजाने को बहुत समय था।

मैं एक सभ्य नागरिक के तरह उसके गिर्द घूमकर पास पड़ी एक सीढ़ी से ऊंचे स्थान पर चढ़ बैठा और जेब से डायरी निकाल उसकी चित्र बनाने में जुट गया।
कुशल चित्रकार तो क्या बस बचपन का शौक था, सो संभले हूं। कुछ आरी तिरछी लाइने खींचकर चित्र का नाम दे देता हूं, कालांतर में कुछ अलौकिक चित्र भी बनाया जिसका प्रमाण शायद ही पृथ्वी पर मिले। परंतु न तो मेरा चित्र और न ही ये विधा लोगों को जंची। सो नसमझो के मेले में मैं अपनी समझदारी का सौदा कर उनकी मोल लाया। आयातित समझदारी का भरपूर रस चूस फेंका। पुनः अपनी पे आ गया।

इतने में एक मानवी आकृति डायरी में छाप डाला। अब उसका दाढ़ी खुजाने का काम भी पूरा हो चुका था। वो यत्नपूर्वक अपनी बढ़ी हुई मूंछे, दांत से पीस-पीसकर काट रहा था।
अचानक फिर लेटे ही लेटे शराब की शीशी मुंह में उड़ेल गटागट पी गया और अपनी कंचेनुमा आंख उठाकर एक जलती नज़र से मुझे देख शीशी को पास ही पटककर, उठ बैठा।
बैठने के क्रम में उसके सीने पर पांव-पसारे सो रहा किताब फिसलकर चादर पे आ गिरा। तुरंत उसने किताब उठाई और मुझे दिखाकर किताब से एक पन्ना फाड़ निकाला। फिर पन्ने को हाथ में ले मुझे दिखाकर ही बराबर दो टुकड़ों में चीरकर दोनों कानों में ठूंस खुजाने लगा। मैं ऊंचाई पर बैठा जरूर था, पर उसकी ऐसी हरकतों से थोड़ा भ्रमित अवश्य हो गया।

तभी कहीं से उड़कर एक पत्थर आया और खिचड़ी बाल वाले की खोपड़ी फोड़ डाला, हाय...!
पत्थर की दिशा में तीन काले ठिगने,दांत निकालकर खीखियाते छोकरे, दुबारा उस पर निशाना साधे खड़े थे। मैं वहीं से उनपे जोर से चिल्लाया तो मुझे भद्दी गाली देकर, अंग हिलाकर, गंदे इशारे कर सब भाग गए।
मैं मेरे चित्र के विषय की तरफ मुड़ा तो देखा वो अचेत पड़ा था। मैं आनन फानन में सीढ़ी उतर उसके पास दौड़ा। उसके पोछानुमा बाल के झुरमुट से खून बहकर चादर गीला कर रह था। मैं चादर का किनारा फार उसके सिर पे पट्टी बांध, पानी ढूंढने दौड़ा...।

समुद्र तट होने पर भी बड़ी मशक्कत से कुली के हाथ डब्बा भर पानी मिल पाया। मैं वापस आया तो वो मानव वहां नहीं था।
दूर गली के मोड़ पर, वह चादर लपेटे मुड़ते हुए दिखा। पीछे उदंड छोकरे, कुत्ते की तरह कोई उसे लकड़ी से कुरेदता, कोई चादर खींचता, कोई उसके पेंट खींच भागता। इनपे बिना अधिक ऊर्जा नष्ट किए वो मंथर गति से लड़खड़ाता जा रहा था। मैं डग भरता हुआ उसके करीब पहुंचा तो सब छोकरे भाग खड़े हुए और दूर जाकर मुंह-चिढ़ाने लगे।
सब अपने बाप से लात खाकर पले हैं!

अब मैं अपनी चाल धीमी कर उसके चाल में आकर पूछा " कौन हो भाई? यहां कैसे पहुंचे?" और पानी का गंदा डिब्बा उसकी ओर बढ़ाया।
वो रुककर अपनी छोटी-छोटी आंखें लट्टू के सामान घुमाकर एक नज़र मुझपे और दूसरी नजर मेरे हाथ में धरे पानी के डब्बे पे डाला। फिर बिना कुछ कहे आगे बढ गया।
इस बारी उसकी आंखें गीली थी और सिर खून से भीगा !
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जड़वत उस स्थान पर खड़ा रहा कुछ देर। फिर यंत्रवत उसके पिछे हो लिया....।

वो गंदी गली को पार कर एक वीरान बस्ती में आ पहुंचा और एक परित्यक्त बिन दरवाजे के भवन जा घुसा। संभव है, इस घर के दरवाजे-खिड़की उजाड़कर पड़ोस की बस्ती के किसी घर में झूला दिए गए हों।
फर्श के बीच-बीच से घास का गुच्छा बाहर, मुंह बाए ताक रहा था। फटी दीवारों पे उग आए जीवट झाड़ की जड़ों से एक-आध कीड़े आगंतुक को सामने देख लुका-छिपी कर रहे थे। हर तरफ शीलन-उमस का बसेरा था। दीवार पे पुते रंगीनी, फीके हो चले थे, बस काली पलस्तर और दरारें दिख रही थी।

अचानक से 'धम्म...म.. म...'! ..आवाज़ आई। मैं हड़बड़ाकर इधर-उधर देखा मेरा नायक वहां नही था! अब मैं अनुभव किया मुझे यहां नहीं होना था। कौन जाने चोर-डाकू का वास हो! सोचा पीछे होऊं तो कितने कमरे गुजर चुका उसके पीछे गिनती याद नही तो रास्ते कहां? वापस होने पे कहीं भटक ही न जाऊं। इसलिए आखिरी बार जहां से वो ओझल हुआ उस ओर तेजी से बढ़ लिया।
मोड़दार गलियारे से बाहर निकलते ही मुझे कमरे का छोड़ मिल गया। सामने तीनों ओर दीवार से घिरा विस्तृत प्रांगण था। बाएं दीवार के मध्य में एक कुवां था। कुंवा के टूटे घेरे में जड़ जमाए एक हरा पीपल पेड़ लहरा रहा था, जिसके पत्तियों से हवा साएं साएं आवाज कर बह रही थी। दूर सामने की दीवार पे एक दरवाजा लटक रहा था। समूचे प्रांगण में पेड़, पत्ते, झाड़ उग आए थे। इन्हें देख ऐसा लग रहा था जेसे मनुष्य की सामान्य आयु से यहां कोई रहा न होगा!
मैं झाड़-घास लांघता दरवाजे की तरफ लपका कि बाएं, कुंवा के घेरे पर बैठा एक मेंढक टर्राया टर्र..र..र.... टर्र...र..जैसे कह रहा हो .....टर्र..र .... तू ठहर्..र.. ठहर..!
कसम खाता हूं! कोई और जानवर होता तो मैं रोकने पर कतई न रुकता। लेकिन मुझे मेंढ़क दोस्त की याद आ गई और मैं न चाहते हुए कुवें की ओर बढ़ने लगा।
मेरे पास आते ही वो मेंढक मुझे पीठ दिखाकर कुवें में कूद पड़ा और कुवें में फैले पीपल के एक पतले जड़ से लटक झूला-झूलने लगा।

मेरी नज़र अंदर पानी पर फैले एक चादर पर परी, मैं तुरंत ही उसे पहचान लिया, और सहमकर पीछे हट गया। अब मुझे उस धम्म की आवाज का रहस्य समझ आ गया। ये निर्जन स्थान अब मुझे काटने दौड़ी। मैं एक सांस में सारा प्रांगन लांघ गया और अबाध गति में ही हाथ के जोरदार प्रहार से सामने का दरवाजा तोड़ भागा।

बाहर गंदे-ताजे पानी का नाला बह रहा था। मैं अब स्थिर हुआ।
व्यस्क की चाल धारण कर लिया। कुछ बच्चे खेल रहे थे। मुझे उस ओर से आता देख सब भाग गए और छुपकर देखने लगे।
मुझे अब उस किताब का ध्यान हो आया। मैं पूछता-पहिचानता एकबारगी फिर उस बिन मुसाफ़िर की नाव के पास आ खड़ा हुआ। लोग अब भी अपने कामों में मशगूल थे। वो शीशी भी बिना ढक्कन पास लुढ़की पड़ी थी। नाव में झांका तो उस गंदी जिल्ददार किताब को वही पाया। मैं झट से उसे उठा उसका जिल्द फार फेंका और खोला.... वह डायरी थी! एक पागल की डायरी! जिसका लेखक वीराने में बने एक कुवें के रास्ते प्रयाण कर गया। पीछे छोड़ गया बस एक डायरी.. क्या मेरे लिए?

डायरी में पहला परिचय पृष्ठ नही था। मैं पास हर ओर नज़र दौड़ाया। पर जिसे वो पागल कान खुजाने को इस्तेमाल किया, वो कागज़ का टुकड़ा कहीं न दिखा।
मैं अपनी डायरी से उसका चित्र बना पन्ना खींच निकाला और उसके फटे परिचय पृष्ठ के स्थान में दबाकर, उसकी डायरी बंद कर वही छोड़ गया...!

मुझे कहानी मिल गई!

© rakesh_singh🌅