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ब्रह्मचर्य - १
ब्रह्मचर्य अर्थात जो सदैव ब्रह्म(आत्मा) में चरता(निवास करता)है।जो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, ईर्ष्या, अदेखाई रूपी आदि कषायो को वश में कर लेता है।

ब्रह्मचर्य भिन्न भिन्न स्तर के होते है।
1)मन से ब्रह्मचर्य: जिसके मन मे विषय को पोषण देने की किंचितमात्र भावना न हो।

2)वचन से ब्रह्मचर्य: जिसकी वाणी में कभी कोई विषय विकार की बात तक ना हो।

3)काया से ब्रह्मचर्य: जो शारीरिक रूप से किसी के भी साथ विषय संबंध से ना जुड़ा हो।

जो मन,वचन, काया से शुद्ध अखंड ब्रह्मचर्य की भावना रखता हो वो भी पूजनीय है और जो मन, वचन, काया से शुद्ध अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करता हो उसपे ब्रह्मांड के सारे देवी, देवताओं का आशीर्वाद और रक्षण सदैव रहता है इतना ही नही स्वयं इन्द्र भी उसको नतमस्तक करनेके पश्चात ही आसन ग्रहण करते है।

संदर्भ : समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य

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