मोहल्ला-ए-गुफ़्तगू (पार्ट -एक)
1. मोहल्ला-ए-गुफ़्तगू
*मिरे मोहल्ले की जो भी खबर उड़ती है ना वो अखबार में छपती हैं ना वो टीवी पर दिखती हैं*
जी हां ये बात सौ फीसदी बिलकुल सही हैं..एक मोहल्ला ही हैं जहां ज़माने भर की चर्चाए तों होती हैं लेकिन वो कभी खबरों में शामिल नहीं हो पाती हैं.. क्योंकि जो भी खबर कनाफूसी से शुरू होकर फैलती तों हैं लेकिन मोहल्लो की गली कुचों में ही दव कर रह जाती हैं कभी कभार कुछ खबरें ऐसी भी होती हैं खबर भी बन जाती हैं.. अगर देखा जाए तों ये मुहल्लों की बैठकों में होने वाली चर्चाएं खाली पेट में गैस की तरह गुड गुड कर के रह जाती हैं क्योंकि इंसानी जरूरत की खबरों पर कौन ध्यान देता हैं.. लेकिन फिर भी घर, दुनियां और राजनीति के सारे तंत्र और प्रपंच इन्ही मोहल्लो से पनप कर यही मुरझा जाते हैं लेकिन कई खबरें ऐसी होती हैं जो खनकते भी हैं... खनक का अर्थ मुहल्लों की गुफ़्तगू में थोड़ा अलग मतलब हैं..क्योंकि ज्यादातर
आज कल ऐसी ही खबरों को सुनने और सुनाने में लोगों को बेहद रस आता हैं..
सच कहूं अगर ये मोहल्लें ना होते तों ये ज़माने की दास्ताने ना होती और इंसानी मिज़ाज के हालचाल भी न पता होते और ये देश और समाज की खबरें भी ना पता होते..
मैं जिस मकान में किराए से रहने आया था वो मकान मोहल्ले के चौराहे की कॉलोनी के ब्लॉक के कोने का हैं . और मैं हर रोज शाम को मकान के बरामदे में लगी अपनी टेबल कुर्सी पर आ कर जम जाया करता हूं क्योंकि जितना सुकून टीवी की फालतू बकवास देख कर नहीं मिलता था उतना सुकून और मजा मोहल्ले की रौनक की रौनक में शामिल होकर मिलता हैं .. हलाकि इस चोगड्ढे पर कॉलोनी के लोगों की जरूरत के मुताबिक दुकाने भी हैं जिसके चलते यहां की रौनक में चारचंद लग जाया करते हैं दिन भर की थकान यहां बैठ कर खुद वा खुद मिट जाया करती हैं.. बरामदे के बहार ही मकान मालिक ने पत्थर की फरसियों का बैठने का ठिया भी बना रखा हैं जिस पर दिन भर मोहल्ले के लोग बैठे रहते हैं और मेरे कान ज़माने भर की बातें सुनते रहते हैं वहीं मेरी आंखे कॉलोनी के मोहल्ले के वातावरण को निहारा...
*मिरे मोहल्ले की जो भी खबर उड़ती है ना वो अखबार में छपती हैं ना वो टीवी पर दिखती हैं*
जी हां ये बात सौ फीसदी बिलकुल सही हैं..एक मोहल्ला ही हैं जहां ज़माने भर की चर्चाए तों होती हैं लेकिन वो कभी खबरों में शामिल नहीं हो पाती हैं.. क्योंकि जो भी खबर कनाफूसी से शुरू होकर फैलती तों हैं लेकिन मोहल्लो की गली कुचों में ही दव कर रह जाती हैं कभी कभार कुछ खबरें ऐसी भी होती हैं खबर भी बन जाती हैं.. अगर देखा जाए तों ये मुहल्लों की बैठकों में होने वाली चर्चाएं खाली पेट में गैस की तरह गुड गुड कर के रह जाती हैं क्योंकि इंसानी जरूरत की खबरों पर कौन ध्यान देता हैं.. लेकिन फिर भी घर, दुनियां और राजनीति के सारे तंत्र और प्रपंच इन्ही मोहल्लो से पनप कर यही मुरझा जाते हैं लेकिन कई खबरें ऐसी होती हैं जो खनकते भी हैं... खनक का अर्थ मुहल्लों की गुफ़्तगू में थोड़ा अलग मतलब हैं..क्योंकि ज्यादातर
आज कल ऐसी ही खबरों को सुनने और सुनाने में लोगों को बेहद रस आता हैं..
सच कहूं अगर ये मोहल्लें ना होते तों ये ज़माने की दास्ताने ना होती और इंसानी मिज़ाज के हालचाल भी न पता होते और ये देश और समाज की खबरें भी ना पता होते..
मैं जिस मकान में किराए से रहने आया था वो मकान मोहल्ले के चौराहे की कॉलोनी के ब्लॉक के कोने का हैं . और मैं हर रोज शाम को मकान के बरामदे में लगी अपनी टेबल कुर्सी पर आ कर जम जाया करता हूं क्योंकि जितना सुकून टीवी की फालतू बकवास देख कर नहीं मिलता था उतना सुकून और मजा मोहल्ले की रौनक की रौनक में शामिल होकर मिलता हैं .. हलाकि इस चोगड्ढे पर कॉलोनी के लोगों की जरूरत के मुताबिक दुकाने भी हैं जिसके चलते यहां की रौनक में चारचंद लग जाया करते हैं दिन भर की थकान यहां बैठ कर खुद वा खुद मिट जाया करती हैं.. बरामदे के बहार ही मकान मालिक ने पत्थर की फरसियों का बैठने का ठिया भी बना रखा हैं जिस पर दिन भर मोहल्ले के लोग बैठे रहते हैं और मेरे कान ज़माने भर की बातें सुनते रहते हैं वहीं मेरी आंखे कॉलोनी के मोहल्ले के वातावरण को निहारा...