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उम्मीद की किरण
सरिता अपने नाम की तरह ही एक ऐसी बेटी थी जो अपने साथ सबको लेकर चलती थी। बड़ी ही जिम्मेदारी थी उसके कंधों पर । पिता को बचपन से सिर्फ नशे में चूर ही देखी । मां किसी तरह परिवार की गाड़ी चला रही थी। तीन भाई-बहनों में वह सबसे बड़ी होने का खामियाजा अपने पढ़ाई को तीलांजली देकर चुकानी पड़ी।
किसी तरह जुगाड़ कर कपड़े की दुकान पर अपने लिए एक काम जुगाड़ कर सुबह से शाम तक व्यस्त रहना उसे घर की कलह से दूर शुकुन ही दे रहा था।
दिन- रात मेहनत कर भाई -बहन के पढ़ाई का खर्चा वहन कर रही थी। समय अपने गति से चल रहा था। पर काल को कुछ और ही मंजूर था। शाम को घर लौट ही रही थी कि अचानक कार से टकरा जाने के कारण गंभीर रूप से घायल होकर सरिता को अपनी एक पांव गंवाना पड़ जाता है। ऐसे में उसे अपने काम से भी हाथ धोना पड़ता है।
मां - बाप के नजर में भी वह एक बोझ बन जाती है। अचानक सरपंच महोदय सरिता से अपना विवाह का प्रस्ताव रखते हैं। माता-पिता के लिए यह सोने पर सुहागा काम करता है। पचास साल के एक अधेड़ से अपनी बेटी का विवाह कर ले फूले नहीं समाए। सरिता इसे अपनी भाग्य समझ चुपचाप स्वीकार कर लेती है। अपनी उम्र के बेटे की मां बहन ससुराल में कदम रखती है। सरपंच का बेटा अंदर ही अंदर मन मारकर इस रिश्ते को स्वीकार कर लेता है। गांव में चुनाव का माहौल था।प्रचार काऊ जोर शोर से चल रहा था। सरिता भी इसमें जुटी हुई थी। सरपंच सरिता पर दया करने के आड़ में दुबारा लोगों का सहानुभूति पाकर जीत हासिल की। सरिता को न चाहते हुए भी खुशी होना पड़ा। अब सरपंच अपनी असली रंग में आने लगा। बात सरिता को बेचने तक पहुंच गया। सरिता यह सुन सुधरने रह गई। सरपंच कुछ आगे कर पाता सरिता का सब्र जवाब दे दिया । वह किसी तरह। पुलिस को सभी बातों से अवगत कराती है । उसके साथ सरपंच का बेटा भी देता है। अब सरिता पुनः अपने जीवन को संवारने में जुटे जाती है । उसे फिर से अपने जीवन को संवारने में सरपंच का बेटा पूर्ण सहयोग करता है। आज भी समाज में ऐसे लोग हैं। अंधेरे में उम्मील की किरण जरूर होता है ।
रीता।