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छाया...
छाया... .....
मनय की साइकल अपनी रोज की स्पीड में चल रही थी.. पुरानी होने से चैन चर.. चर ..कर रही थी तो मरघाट भी पड.. पड.. की आवाज निकाल रहा था,धूप अपने चरम पर थी उपर से जुलाई का गर्म महीना.. लू जैसे चांटे मार रही थी , पर इन आवाजो और थपेडो सै दूर मनय आज कुछ और ही सोच रहा था...यह जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है एक टूटी फूटी साइकल.. गर्म हवा के झोंके और लोगो के घर घर जाकर ट्यूशन देना!!
पढने की उम्र में कोन काम करता है.. बापूराम को भी दया नहीं आती.. अभी तो ग्रेजुऐशन भी पूरा नहीं हुआ और काम कर रहा हूँ.. किस घर में पैदा हो गया????
सोचते सोचते अपनी किस्मत को दोष देता मनय सडक किनारे एक पुराने जर्जर पेड की छाया के नीचे थोडा रूक गया... हम्फ... थोडा सांस लै लैता हूं यहां छाया है,
छाया में बैठे बैठे मनय सडक पर आते जाते लोगो को देख रहा था... अरे दैखो मोटरसाइकल वालो को तो कोई दिक्कत ही नही ..कैसी तूफान सी चलती है ना पैडल का झंझट और शानदार हवा खाते खाते... बापूराम एक मोटरसाइकल तो दिला सकता है इतना तो कमा ही रहा हूँ... ,अचानक मनय के सामने से एक लकडी का ठैला जाता है.. ठैले पर कुछ अनाज की बोरिया ओर कट्टे रखे हैं.. पसीने से तर एक पल्लीदार ...रद्दड से कपडे पहने एक हाथ से माथे का पसीना पोछते और दूसरे से ठैला धकेलते आगे बढ रहा है...सूरज पूरा आसमान में उपर आ चुका है सिंका देने वाली धूप.. अरे... ये तो बापू........
उपर से पैड के पत्ते झड झड कर मनय के आस पास गिर रहे हैं.... जर्जर होता यह पेड फिर भी.. वह छाया दे रहा है.. मनय को थोडी ताजी और ठण्डी सांस ..छाया
मनय चुपचाप बापूराम के साथ पैदल पैदल साइकिल पकडे चलने लगता है............।

मुकेश कुमार कुमावत 14.10.2020