यह राजधानी
इतने बड़े देश की इतनी बड़ी राजधानी। और इसे धुन्ध ने पूरी तरह निगल लिया था। बस स्टॉप के शेड और उसके नीचे बसों की प्रतीक्षा करने वाले दो-चार मुसाफिरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई देता था। केवल दाईं ओर अकबर होटल का धुंधला आकार धुन्ध में से सिर बाहर निकाल कर दिख रहा था और बाईं ओर रिंग के उस पार बेकाजी काम्पलैक्स की ऊंची इमारतों तथा हयात रीजेन्सी होटल के धुंधले आकार दिखाई देते थे।
मोहन सात बजे ही बस स्टॉप पर पहुंच गया था। मगर 615 नम्बर बस कहीं नहीं थी। पिछले एक घण्टे में 512 नंबर वाली बसें और 51 नंबर वाली दो बसें आई थीं। इस ओर से भी 615 नंबर वाली बस गई थी, मगर पता नहीं उस ओर वाली बस क्यों नहीं आई थी?
एकदम गाड़ी के चलने की आवाज आई और धुंध का पर्दा चीर कर एक थ्री-व्हीलर उसके सामने प्रकट हुआ और बस-स्टॉप के निकट रुक गया। इसका इंजन चलता रहा। इंजन की आवाज बसों की प्रतीक्षा करने वाले मुसाफिरों को न्योता दे रही थी, जैसे चलना है तो चलो। हम सेवा करने के लिए हाजिर हैं।
हेड-लाइट जलाकर एक बस आई और रुकी। मोहन कठिनाई से ही उसका नंबर पढ़ पाया और बस में चढ़ने के लिए वह दौड़ा, मगर निकट पहुंचकर पता चला कि यह एक रुपया टिकट वाली डिलक्स बस है। वह शेड की शरण में लौट आया। थ्री-व्हीलर के इंजन की आवाज अब उसे अखरने लगी। गलती से उसकी नजर थ्री-व्हीलर के चालक पर पड़ी। उसे देखकर पता नहीं क्यों घबड़ाकर दूसरी ओर देखने लगा।
बस स्टॉप पर और भी दो-चार पुरुष थे और दो-एक स्त्रियां भी। इनमें से भी कोई भी एक-दूसरे के साथ बातचीत नहीं कर रहा था। सुबह तड़के उठना, नहा-धोकर और शेव बनाकर रोटी का डिब्बा लेकर बस स्टॉप पर पहुंचना और दफ्तर पहुंचने तक चुपचाप रहना, अब मोहन की आदत बन गई थी। पहले उसे इस बात में कुछ नयापन दीखता था। कुछ बड़ाई दीखती थी। कुछ एडवेंचर लगता था। जब भी वह एक-एक दो-दो वर्ष के बाद कश्मीर जाता था, वहां प्रायः अपने मित्रों से कहता रहता था-
‘तुम अभी मजे की नींद में ही सोये हो। दिल्ली में अब तक मैं नहा-धोकर दस-बारह मील दूर दफ्तर पहुंच चुका होता हूं। तुम लोगों को क्या? तुम लोग यहां बाबू टाक की भांति अपने भाग्य का खाते हो।’ मगर अब उसे यह आत्म-प्रशंसा करने या डींग मारने की बात नहीं लगती। वह बीच-बीच में अपने ऊपर हंसता भी था कि प्रतिदिन सुबह जल्दी नहा-धोकर, शेव बनाकर, घर से निकलने से उसे कौन-सी उपलब्धि प्राप्ति हुई? अब उसने कश्मीर जाना भी छोड़ दिया था! जता भी किसके पास? किसके पास जाकर डींग मारता? वहां रहा ही कौन उसका? बड़े-बूढ़े मर-खप गये थे और जो भी जवान थे वे कश्मीर से भाग गये थे।
आज उसके हाथ में रोटी का डिब्बा नहीं था, क्योंकि उसे इस समय दफ्तर नहीं जाना था। कल शाम को शर्मा जी के घर पर उसे सरला का टेलीफोन आया था। वे तीनों व्यक्ति कल ही कलकत्ता से पहुंचे थे और अहमदाबाद जाने से पहले वे उसके परिवार के साथ, विशेषकर बच्चों के साथ, एकाध दिन गुजारना चाहते थे। फिलहाल वे अपने किसी मित्र के यहां बी।एन। 21, बसंत विहार में रुके हुए थे। फोन पर बात करते हुए ही मोहन का हृदय प्रफुल्लित हुआ था कि वह सरला से चार-साढ़े चार वर्ष के पश्चात् मिलेगा। बबलू और डबलू खुशी से झूम उठे थे कि जिप्सी, सरला आंटी की सुनहरी बालों वाली बेबी, जिसकी उन्होंने केवल एक रंगीन फोटो ही देखी थी, कल उनके घर आ जायेगी। मगर उसकी पत्नी परेशान थी कि ननद की कोई बात नहीं, मगर ननदोई को कहां बिठायेगी और सुलायेगी? उनके पाास केवल एक कमरा था और उसी के साथ एक बालकनी, जिसे उन्होंने बांस के चिक-पर्दों से घेर कर रसोई में परिवर्तित किया था। इतना ही नहीं शौचालय, जिसका फ्लश काम नहीं करता था, और गुसलखाना, जिसका शावर टूटा हुआ था, उनका पड़ोसियों के साथ साझा था। वह इसलिए परेशान नहीं थी कि प्रमोद एक बड़ा अफसर था। बड़ा अफसर होने पर भी अगर उनकी ही जात-बिरादरी का होता तो फिर वह जैसे-तैसे एक कमरे में गुजारा कर लेते। उसको बेड पर सुला लेते और शेष सबके लिये फर्श पर ही बिस्तरा बिछा देते...
मोहन के घर के सामने जो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के सरकारी क्वार्टर थे, उनकी छतों पर धूप पड़ने लगी थी और राजधानी के मुखड़े से धुंध का पर्दा अब हटने लगा था। अब बड़ी सड़क और उससे मिलने वाली छोटी-छोटी सड़कें, दूध का डीपो और उसके सामने बर्तन हाथ में लिये...
मोहन सात बजे ही बस स्टॉप पर पहुंच गया था। मगर 615 नम्बर बस कहीं नहीं थी। पिछले एक घण्टे में 512 नंबर वाली बसें और 51 नंबर वाली दो बसें आई थीं। इस ओर से भी 615 नंबर वाली बस गई थी, मगर पता नहीं उस ओर वाली बस क्यों नहीं आई थी?
एकदम गाड़ी के चलने की आवाज आई और धुंध का पर्दा चीर कर एक थ्री-व्हीलर उसके सामने प्रकट हुआ और बस-स्टॉप के निकट रुक गया। इसका इंजन चलता रहा। इंजन की आवाज बसों की प्रतीक्षा करने वाले मुसाफिरों को न्योता दे रही थी, जैसे चलना है तो चलो। हम सेवा करने के लिए हाजिर हैं।
हेड-लाइट जलाकर एक बस आई और रुकी। मोहन कठिनाई से ही उसका नंबर पढ़ पाया और बस में चढ़ने के लिए वह दौड़ा, मगर निकट पहुंचकर पता चला कि यह एक रुपया टिकट वाली डिलक्स बस है। वह शेड की शरण में लौट आया। थ्री-व्हीलर के इंजन की आवाज अब उसे अखरने लगी। गलती से उसकी नजर थ्री-व्हीलर के चालक पर पड़ी। उसे देखकर पता नहीं क्यों घबड़ाकर दूसरी ओर देखने लगा।
बस स्टॉप पर और भी दो-चार पुरुष थे और दो-एक स्त्रियां भी। इनमें से भी कोई भी एक-दूसरे के साथ बातचीत नहीं कर रहा था। सुबह तड़के उठना, नहा-धोकर और शेव बनाकर रोटी का डिब्बा लेकर बस स्टॉप पर पहुंचना और दफ्तर पहुंचने तक चुपचाप रहना, अब मोहन की आदत बन गई थी। पहले उसे इस बात में कुछ नयापन दीखता था। कुछ बड़ाई दीखती थी। कुछ एडवेंचर लगता था। जब भी वह एक-एक दो-दो वर्ष के बाद कश्मीर जाता था, वहां प्रायः अपने मित्रों से कहता रहता था-
‘तुम अभी मजे की नींद में ही सोये हो। दिल्ली में अब तक मैं नहा-धोकर दस-बारह मील दूर दफ्तर पहुंच चुका होता हूं। तुम लोगों को क्या? तुम लोग यहां बाबू टाक की भांति अपने भाग्य का खाते हो।’ मगर अब उसे यह आत्म-प्रशंसा करने या डींग मारने की बात नहीं लगती। वह बीच-बीच में अपने ऊपर हंसता भी था कि प्रतिदिन सुबह जल्दी नहा-धोकर, शेव बनाकर, घर से निकलने से उसे कौन-सी उपलब्धि प्राप्ति हुई? अब उसने कश्मीर जाना भी छोड़ दिया था! जता भी किसके पास? किसके पास जाकर डींग मारता? वहां रहा ही कौन उसका? बड़े-बूढ़े मर-खप गये थे और जो भी जवान थे वे कश्मीर से भाग गये थे।
आज उसके हाथ में रोटी का डिब्बा नहीं था, क्योंकि उसे इस समय दफ्तर नहीं जाना था। कल शाम को शर्मा जी के घर पर उसे सरला का टेलीफोन आया था। वे तीनों व्यक्ति कल ही कलकत्ता से पहुंचे थे और अहमदाबाद जाने से पहले वे उसके परिवार के साथ, विशेषकर बच्चों के साथ, एकाध दिन गुजारना चाहते थे। फिलहाल वे अपने किसी मित्र के यहां बी।एन। 21, बसंत विहार में रुके हुए थे। फोन पर बात करते हुए ही मोहन का हृदय प्रफुल्लित हुआ था कि वह सरला से चार-साढ़े चार वर्ष के पश्चात् मिलेगा। बबलू और डबलू खुशी से झूम उठे थे कि जिप्सी, सरला आंटी की सुनहरी बालों वाली बेबी, जिसकी उन्होंने केवल एक रंगीन फोटो ही देखी थी, कल उनके घर आ जायेगी। मगर उसकी पत्नी परेशान थी कि ननद की कोई बात नहीं, मगर ननदोई को कहां बिठायेगी और सुलायेगी? उनके पाास केवल एक कमरा था और उसी के साथ एक बालकनी, जिसे उन्होंने बांस के चिक-पर्दों से घेर कर रसोई में परिवर्तित किया था। इतना ही नहीं शौचालय, जिसका फ्लश काम नहीं करता था, और गुसलखाना, जिसका शावर टूटा हुआ था, उनका पड़ोसियों के साथ साझा था। वह इसलिए परेशान नहीं थी कि प्रमोद एक बड़ा अफसर था। बड़ा अफसर होने पर भी अगर उनकी ही जात-बिरादरी का होता तो फिर वह जैसे-तैसे एक कमरे में गुजारा कर लेते। उसको बेड पर सुला लेते और शेष सबके लिये फर्श पर ही बिस्तरा बिछा देते...
मोहन के घर के सामने जो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के सरकारी क्वार्टर थे, उनकी छतों पर धूप पड़ने लगी थी और राजधानी के मुखड़े से धुंध का पर्दा अब हटने लगा था। अब बड़ी सड़क और उससे मिलने वाली छोटी-छोटी सड़कें, दूध का डीपो और उसके सामने बर्तन हाथ में लिये...