...

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एक दोस्त अपना सा...❤️
एक शादी_शुदा स्त्री, जब किसी पुरूष से मिलती है_
उसे जाने अनजाने मे अपना दोस्त बनाती है,
तो वो जानती है की
न तो वो उसकी हो सकती है!
और न ही वो उसका हो सकता है!
वो उसे पा भी नही सकती और खोना भी नही चाहती..
फिर भी वह इस रिश्ते को वो अपने मन की चुनी डोर से बांध लेती है....
तो क्या वो इस समाज के नियमो को नही मानती?
क्या वो अपने सीमा की दहलीज को नही जानती?
जी नहीं
वो समाज के नियमो को भी मानती है
और अपने सीमा की दहलीज को भी जानती है_
मगर कुछ पल के लिए वो अपनी जिम्मेदारी भूल जाना चाहती है!
कुछ खट्टा... कुछ मीठा
आपस में बांटना चाहती है!
जो शायद कहीं और किसी के पास नही बांटा जा सकता है!
वो उस शख्स से कुछ एहसास बांटना चाहती है!
जो उसके मन के भीतर ही रह गए है कई सालों से..
थोडा हंसना चाहती है!
खिलखिलाना चाहती हैं!
वो चाहती है की कोई उसे भी समझे बिन कहे
सारा दिन सबकी फिक्र करने वाली एक स्त्री चाहती है, की कोई उसकी भी फिक्र करे...
वो बस अपने मन की बात कहना चाहती है!
उन रिश्तों और जिम्मेदारी की डोर से परे होकर,
कुछ पल सुकून के बिताना चाहती है!
जिसमें न दूध उबलने की फिक्र हो,न राशन का जिक्र हो....न किसी के पुकारने की आवाज हो और न EMI की कोई तारीख हो,
आज क्या बनाना है,
ना इसकी कोई तैयारी हो,
बस कुछ ऐसे ही मन की दो बातें करना चाहती है,
कभी उल्टी_सीधी ,बिना सर_पैर की बातें
तो कभी छोटी सी हंसी और कुछ पल की खुशी... दे सके...
बस इतना ही तो चाहती है!
आज शायद हर कोई इस रिश्ते से मुक्त एक दोस्त ढूंढता है...क्या उसको खुश रहने का अधिकार नहीं...!!
~P.s