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नशे की रात ढल गयी-21
(21) साहित्य का संक्रमण कब ,कहाँ और कैसे लगा, कुछ ठीक-ठीक याद नहीं ..लेकिन शक की सुई हरबार घूमकर सिर्फ एक जगह आकर रूक जाती है और वह है -दीना का ढाबा ,जहाँ शाम होते ही हम खींचे चले आते थे । यह सीवान का काॅफी हाउस था। इस ढाबे की स्थाई सदस्यता लेने के बाद मैं उस ग्रुप की ओर मुखातिब हुआ ,जहाँ हममिजाज दोस्तों की जमघट थी । यहाँ अपनी-अपनी पसंद के चार-पाँच ग्रुप थे ,जहाँ वैसे तो हर विषय पर गरमागरम बहसें होती रहती थीं ,लेकिन राजनीतिक बहसें कुछ ज्यादा हीं होतीं थीं । यहीं पहलीबार जितू,मनोज और गिरीश से रू-ब-रू हुआ था। गिरीश की बेतकल्लुफी का मुझपर ऐसा रंग जमा कि मैं उस पहली मुलाकात के बाद ही उसका मुरीद होते चला गया । उसकी वर्सेटाइल शख्सियत में बेफिक्री और जिंदादिली कुछ इसकदर घुलमिल-सी गयी थीं कि मैंने उसे कभी संजीदा और गमगीन होते नहीं देखा। उसके स्वभाव में एक किस्म की फकिराना मस्ती थी जिसके आकर्षण से किसी का भी बच पाना मुश्किल था। छरहरी और दुबली काया में एक नाजुक सा दिल था जो अपनी धुन और लय में मस्त धड़कता था । और याद्दाश्त इतनी हैरतअंगेज कि रेणु की 'परती परिकथा' से लेकर राही मासुम रजा का 'आधा गाँव' तक जुबान पर हाजिर ! वैसे तो उसे देश-दुनिया की हर अच्छी-बुरी खबर और घटनाओं की बहुत तफसील से जानकारी रहती थी लेकिन बेशक किताबों की दुनिया का बेताज बादशाह सिर्फ़ और सिर्फ वही था । सच तो यह है कि जिस समय मेरी साहित्यिक यात्रा शुरू हीं हुई थी , उस समय तक वह साहित्य में काफी लंबा सफर तय कर चुका था । उसकी अपनी निजी लाइब्रेरी थी जिसमें साहित्यिक से लेकर जासूसी और कई अन्य विश्वप्रसिद्ध बेस्ट-सेलर किताबों का जखीरा भरा पड़ा था । वक्त के साथ-साथ हमारी दोस्ती जब परवान चढ़ी तो आगे चलकर हमदोनों, हमप्याला भी बनते गये । बाद में उसके इसी तजुर्बे ने मेरी शादी में जनवासे के बारातियों का 'खास ख्याल' रखने की जिम्मेदारी भी निभाई। दोस्तों के संग किसी नाम के साथ 'जी' और 'आप' कहने या कहलवाने की तमीज उसके मिजाज में नहीं थी , इसलिए जल्दी ही हमारे बीच की यह दीवार भी टूटती गयी । उसकी फितरत में एक और खासियत थी कि अगर आपके तीन-चार भाई हैं और उन सबमें उम्र का फासला चाहे कुछ भी हो, उसके ताल्लुकात उन सबों से उतने ही दोस्ताना होंगे जितना कि आपसे है। कभी-कभी तो पिता और पुत्र दोनों से उसने समभाव रखते हुए मित्र-धर्म का बखूबी निर्वाह किया ।
मैंने खैनी खाना इसी ढाबे से सीखा और बाद में सिगरेट पीना भी। जहाँ तक याद है ,खैनी जीतू से और सिगरेट गिरीश से ।मगर सिगरेट मुझे कभी रास नहीं आयी । एक बेवफा सनम की तरह बहुत जल्द इसने मुझसे किनारा कर लिया । लेकिन खैनी ने एक लंबे अरसे तक मेरा साथ दिया और जबतक मेरे दाँत स्वस्थ रहे ,मेरी हमसाया बनकर रही । उनदिनों मैंने खैनी दबाकर कई कविताँए लिखीं । दरअसल, दीना के ढाबे में एक शराब के अलावें बाकी सब के सेवन की छुट थी और इस आजादी का लुत्फ कुछेक सात्विकों को छोड़कर सबने उठाया । तब ढाबे में गिरीश की आर्थिक हैसियत कुछ-कुछ उस बिगड़े हुए नवाब की तरह थी जो दोस्तों की महफिल में बेहिचक दिल खोलकर खर्च करता है । शायद यही वजह थी कि उसकी दोस्ती का दायरा बहुत बड़ा था और उसमें किस्म-किस्म के लोग शामिल थे । उससे दोस्ती का फायदा सबने भरपूर उठाया ।
शुरू से हीं पढ़ाई के मामले में मैं बहुत ही सुस्त और आलसी सा रहा हूँ । अपनी जिन्दगी में मैं शायद ही कोई उपन्यास शुरू से अंत तक पढ़ पाया । अगर पढ़ा भी तो आखिरी पन्ने तक आते-आते महीने और कभी-कभी तो साल लग गये । किसी भी किताब को एक प्रवाह में पढ़ जाना मेरे लिए नामुमकिन सा रहा है । गिरीश के बारे में सोचकर हैरत होती है कि उसने जितनी किताबें पढ़ ली हैं, मुझे पढ़ने में शायद सात जन्म लगेंगे।
एकबार हम सबपर आध्यात्मिकता का नशा भी चढ़ा । रामनवमी के अवसर पर सीवान में एक संत का आगमन हुआ । पराशर जी(एक सिक्ख पगड़ीधारी संत) के ओजस्वी प्रवचनों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि पूरा सीवान ही राममय हो गया । रामनवमी तक पूरा काॅफी हाउस उठकर गाँधी मैदान में चला जाता । उनदिनों पाराशर जी का जादू हम सबपर कुछ वैसा ही था जैसा कि अमेरिकावासियों पर विवेकानंद का रहा होगा । लेकिन रामनवमी के समापन के बाद धीरे-धीरे यह उतरने लगा और हम फिर अपने पूराने रंग में लौट आये । लेकिन मनोज जी पर यह रंग एकबार चढ़ा तो फिर कभी उतरने का नाम नहीं लिया । अब तो गिरीश भी हाजी हो गये हैं । और हम भी कुछ-कुछ होने लगे हैं । सब वक्त का तकाजा है-न हम रहे न हम,न तुम रहे न तुम ..मगर नशे के हजार रंग हैं । एक राह रूक गयी तो और जुड़ गयी ।
इनदिनों गिरीश और कविता एक दूसरे के पर्याय से हो गये हैं । मुझे लगता है,गिरीश से कहीं ज्यादा , कविता पर गिरीश का नशा है ...
( क्रमशः )