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पवित्रता क्या है वैज्ञानिक विश्लेषण
पवित्रता क्या है? पवित्रता का वैज्ञानिक विश्लेषण

प्रस्तुत "पवित्रता" का विषय बहुत गहन गम्भीर है। हम यहां पवित्रता के विषय के सूक्ष्म स्वरूप की अंतर्निहित संक्षिप्त और गम्भीर वैज्ञानिक विवेचना कर रहे हैं। हमारी सभी प्रकार की पवित्रता की धारणायें इसी वैज्ञानिक विश्लेषण में समायी हुई हैं। यदि पवित्रता का ऐसा स्वरूप समझ में आ गया हुआ है और वैसा ही पुरुषार्थ तथा वैसी ही स्थिति बनाने के लिए पुरुषार्थ में कृतसंकल्प हैं तो ऐसा समझो जैसे इसमें पवित्रता की सभी छोटी छोटी स्थूल धारणाएं समाई हुईं हैं। ऐसी आत्मा की पवित्रता की स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है। इसलिए निवेदन यह है कि इसे जरा ध्यान से समझने का प्रयास करें। हम जानते हैं कि भौतिक संसार में प्रत्येक वस्तु की (अणु परमाणु की) एक प्रकार की अंतर्निहित गुणवत्ता होती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि उसकी गुणवत्ता स्वातः स्वभावतः अपने समय के अनुसार भी बढ़ती घटती है। जहां तक मनुष्य की अंतर्निहित क्षमताओं की गुणवत्ता की सीमा का सवाल है, मनुष्य की गुणवत्ता को उसकी कार्य करने की क्षमता के अनुसार तदनुरूप पुरुषार्थ के द्वारा बढ़ाया जा सकता है। भौतिक पदार्थ की गुणवत्ता को भी एक सीमा तक मनुष्य बढ़ा सकता है।

अभौतिक लोक (सूक्ष्म लोक और पारलौकिक लोक सहित) की गुणवत्ता भौतिक लोक की गुणवत्ता से भिन्न है। वह गुणवत्ता अधिक सूक्ष्म है। अभौतिक लोक सूक्ष्म है। इसलिए भौतिक की गुणवत्ता से अभौतिक की गुणवत्ता ज्यादा होती है। जैसे जैसे सूक्ष्मता बढ़ती है वैसे वैसे ही उसकी गुणवत्ता बढ़ती जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि सूक्ष्मता ही गुणवत्ता है। गुणवत्ता की अधिकता ही सूक्ष्मता की अधिकता है। इसी सूक्ष्मता को ही हमने एक दूसरा संज्ञात्मक शब्द दिया है। वह है "दिव्यता"। इसलिए अध्यात्मिक भाषा में हम सूक्ष्मता को दिव्यता कह सकते हैं या ऊर्जा का दिव्य हो जाना कहते हैं। उत्तरोत्तर इसका यह अर्थ हुआ कि जितनी सूक्ष्मता (गुणवत्ता) बढ़ती जाती है उतनी ही दिव्यता बढ़ती जाती है। इसलिए इस अर्थ में पवित्रता की केवल एक ही सम्यक परिभाषा स्पष्ट होती है। वह एक परिभाषा है कि "दिव्य स्थिति ही पवित्र स्थिति है।

पवित्रता की स्थिति के लेवल

पवित्रता के विषय को यदि हम मात्रात्मक रूप से कहें तो कह सकते हैं कि जितनी दिव्यता ज्यादा होती है उतनी ही पवित्रता ज्यादा होती है। हालांकि दिव्यता स्वयं में एक पूर्ण विशेषण है। लेकिन इसके भी स्तर हो सकते हैं। इसी दिव्यता के संदर्भ में हमें मनुष्य की पवित्रता के स्तरों को भी समझना होगा। मनुष्य स्वयं अभौतिक आत्मा है। मनुष्य के पास भौतिक देह भी है। मनुष्य के पास चिंतन करने की योग्यता मन भी है। मनुष्य के जीवन में स्थूल शरीर, मन और आत्मा, ये तीनों चीजें इकट्ठी काम करती हैं। पवित्रता भी तीनों स्तरों पर होती है और इकट्ठी भी है। इसलिए पवित्रता की स्थिति को हम शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक तीनों स्तरों पर समझ सकते हैं। पवित्रता की स्थिति को बढ़ाने के लिए इन तीनों स्तरों पर अलग अलग भी पुरुषार्थ किया जा सकता है और इकट्ठा भी पुरुषार्थ किया जा सकता है।

पवित्र स्थितियों का परस्पर प्रभाव

यह समझ लें कि एक की सूक्ष्मता (पवित्रता) उत्तरोत्तर दूसरे या तीसरे की सूक्ष्मता (पवित्रता) को बढ़ाती है। चूंकि ये तीनों संयुक्त हैं। इसलिए इनमें से किसी एक प्रकार की स्थिति का प्रभाव दूसरे प्रकार की स्थिति पर पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पवित्रता की स्थिति पारस्परिक पूरक भी होती है। अध्यात्म पथ के अनुगामियों के द्वारा शरीर, मन बुद्धि आदि जितने भी स्थूल या सूक्ष्म प्रकार की धारणाओं को अपनाने के लिए पुरुषार्थ किए जाते रहे हैं वे अन्यान्य बहु आयामी प्रकार से पवित्रता की स्थिति को बढ़ाने के पुरुषार्थ किए जाते हैं। इस प्रकार पदार्थ, भौतिक शरीर और मन की सूक्ष्मता (गुणवत्ता) को बढ़ाकर इनकी पवित्रता को बढ़ाया जा सकता है। पवित्रता की स्थिति मानसिक और दैहिक सूक्ष्मता की स्थिति होती है।

पवित्रता - अध्यात्म की गूढ़ परिभाषा

अध्यात्म विज्ञान पवित्रता की परिभाषा दूसरे ढंग से भी करता है। चिन्तन करने की योग्यता जो मन है वह जब एक निश्चित आयाम में निश्चित, स्पष्ट और निर्णायक ढंग से काम करता है और अपनी एक निश्चित प्रकार की स्थिति बना लेता है तब उसी योग्यता को ही हमने बुद्धि कहा जाता है। अध्यात्म की दृष्टि से पवित्रता की स्थिति के गूढ़ अर्थ को समझें तो कह सकते हैं कि मन की पूरी तरह से मनमनाभव: अवस्था ही सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति होती है। अध्यात्म विज्ञान की यह परिभाषा बहुत गूढ़ अर्थ में सही है। इसका यह अर्थ हुआ कि सम्पूर्ण चैतन्यता अर्थात सम्पूर्ण पवित्रता। इस अर्थ में सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा इतनी ज्यादा गूढ़ है कि सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति को मापने के लिए विज्ञान के पास कोई यन्त्र नहीं है।

सम्पूर्ण मनमनाभव की स्थिति ही सम्पूर्ण पवित्रता है।

सम्पूर्ण मनमनाभव की स्थिति क्या है? मनमनाभव: का अर्थ होता है कि मन-बुद्धि की मर्ज अवस्था तथा आत्मा की सम्पूर्ण चैतन्यता की अवस्था। ऐसी अवस्था जिसमें मन बुद्धि की कोई सक्रियता शेष नहीं रहे। ऐसी अवस्था जिसमें व्यर्थ संकल्प पूरी तरह समाप्त हो जाएं। ऐसी अवस्था जिसमें केवल दृष्टा ही शेष रह जाए। ऐसी अवस्था जब आत्मा परमात्मा के स्वरूप के साथ कंबाइंड हो जाए। वे दोनों अलग अलग प्रतीत ना हों। ऐसी अवस्था जिसमें दिव्य और अलौकिक अनुभव और अनुभवकर्ता दोनों संयुक्त (कंबाइंड) हो जाएं उसे ही मनमनाभव की अवस्था कहते हैं।

पवित्रता को बढ़ाने की तीन विधियां :

योग के साधक की मनमनाभव की स्थिति अर्थात् पवित्र स्थिति का परसेंटेज कैसे बढ़ता है? तीन तरह से आत्मा की मनमनाभव की स्थिति में वृद्धि होती है। क्रमश: इस तरह हैं :-

पवित्रता का स्तर बढ़ाने की पहली विधि :- राजयोग। राजयोग की उच्चतम अवस्था के अनुभवों के द्वारा आत्मा की पवित्र स्थिति सबसे ज्यादा तीव्र गति से बढ़ती है। हल्का राजयोग का अभ्यास करना अलग बात है। यह भी सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति को बढ़ाने के पुरुषार्थ करने का एक अच्छा तरीका तो होता है। परंतु राजयोग के द्वारा पवित्रता की स्थिति को तीव्र गति से बढ़ाने के लिए राजयोग के अभ्यास का स्तर बहुत ज्यादा गहन होना जरूरी होता है। राजयोग की अवस्था में देह से न्यारेपन का अनुभव ज्यादा हो। इस अवस्था में सर्व आत्मिक गुणों की अनुभूति से भी परे की अनुभूति हो। राजयोग के अभ्यास के अंतर्गत इसे कंबाइंड स्थिति का और सम्पूर्ण दृष्टा की स्थिति कहते है।

पवित्रता का स्तर बढ़ाने की दूसरी विधि :- आध्यात्मिक ज्ञान की सूक्ष्म रूप की बौद्धिक समझ। अध्यात्म ज्ञान की गहन समझ। इसे ही अध्यात्मिक प्रज्ञा कहते हैं। यह चिन्तन मनन और गहन बौद्धिक दृश्यावलोकन से पैदा होती है। मनन की एक विशेष स्थिति से गुजरते हुए भी मन बुद्धि की मनमनाभव की स्थिति में वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति के लिए साकार, मानसिक चिंतन मनन से भी ऊपर निराकार का चिंतन मनन करना पड़ता है।

पवित्रता का स्तर बढ़ाने की तीसरी विधि :- यह राजयोग की स्थिति से मिलती जुलती स्थिति है। किसी भी प्रकार की भावपूर्ण निर्संकल्पता की स्थिति के द्वारा की हुई सेवा से भी पवित्र स्थिति बढ़ती है। इसमें मुख्य स्थिति निर्संकल्प भाव की स्थिति होती है। निरसंकल्प भाव से सेवा करने से जो पॉजिटिव वाइब्रेशन प्राप्त होते हैं उनके अदृश्य प्रभाव से भी आत्मा की मनमनाभाव की स्थिति बढ़ती है। इससे आत्मा को मनमनाभव की स्थिति बनने में सहजता होती है। परम उदात्त भावना से जो कार्य किया जाता है बहुत श्रेष्ठ सेवा हो जाती है। ऐसे कार्य की गुणवत्ता भी बदलकर उसमें वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार की भावपूर्ण और निर्संकल्प भाव की सेवा की केमिस्ट्री में क्या होता है? ऐसी सेवा की केमिस्ट्री यह होती है कि आत्मा में सेवा की भावना बहुत ज्यादा घनीभूत हो जाती है। वैसी सेवा के घनीभूत भावनात्मक स्थिति में व्यक्ति को वैचारिक चेतना और स्थूल शारीरिक चेतना भी विस्मृत हो जाती है। इस प्रकार की सेवा की प्रक्रिया में वह देह से न्यारी जैसी स्थिति का अनुभव करने लगती है।

उपरोक्त ऐसी तीनों प्रकार से सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति को बढ़ाने वाली आत्माएं नंबरवार होती हैं। कोटों में कोई और कोई में भी कोई के उदाहरण का जो वर्णन है वह इसी विषय के लिए वर्णन है।

ये तीन स्थितियों को बढ़ाने में एक विशेष विधि को भी समझना बहुत जरूरी है। इसके इलावा इन तीन स्थितियों में कैसे बढ़ाएं? उसके लिए जीवन का प्रैक्टिकल स्वरूप बनाने के नैतिक, मानसिक और भावनात्मक धारणाएं होती हैं। उनके विस्तार की चर्चा हम यहां नहीं कर रहे हैं। हम यहां एक और विशेष बात की ओर आपका ध्यान खिंचवाना चाहते हैं।

प्रधान गुण और पवित्रता का सम्बंध

आत्म चेतना की इन तीन पवित्र स्थितियों को यदि ऊपर से नीचे की ओर क्रमवार कहें तो कह सकते हैं कि सबसे पहला नम्बर है योग। उसके बाद दूसरा नम्बर है ज्ञान की गहन समझ। उसके बाद तीसरा नम्बर है शुद्धतम चित्तदशा से की हुई सेवा या कर्म। कोई व्यक्ति इन तीनों विधियों को अपने पुरुषार्थ का क्रम बना ले सकता है। वह प्रत्येक की साधना करने का अपना अपना स्तर हो सकता है। फिर भी ध्यान रहे प्रत्येक आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति तक पहुंचने की केवल किसी एक ही विधि होती है। वह विधि होती है जो उसका प्रधान गुण होगा। यदि इन तीनों विधियों में से किसी एक विधि में भी सम्पूर्ण समर्पण भाव समाया हुआ होता है तो पवित्रता की स्थिति तेजी से बढ़ती है। तब व्यक्ति की उस स्थिति में सिर्फ एक ही पुरुषार्थ विधि पर्याप्त होती है। जो जिस आत्मा का प्रधान गुण स्वभाव होगा वह आत्मा प्रैक्टिकल धरातल पर उसी गुण के प्रयोग और उपयोग करने की विधि से सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति को प्राप्त करती है।

पवित्र स्थिति का प्रगटीकरण और उपयोग

हो सकता है कि कई आत्माओं को इस विवेचन को समझने में कठिनाई हो। वे इस विषय पर यदि और भी अधिक गहरे चिंतन करेंगे तो उन्हें समझ में आ जाएगा।

उपरोक्त से यह स्पष्ट ज्ञात हो गया है कि पवित्रता की स्थिति का सम्बन्ध अनेक स्तरों की सूक्ष्मता की स्थिति से है। पवित्रता की स्थिति का साकार स्वरूप हजारों, लाखों, करोड़ों और अरबों रूपों में प्रकट हो सकता है। इसका कोई निश्चित आंकड़ा नहीं दिया जा सकता है। जैसे मन की वैचारिक अभिव्यक्तियां अनगिनत हैं। ठीक वैसे ही पवित्रता की स्थिति की अभिव्यक्तियां भी अनगिनत हैं।
इतना ध्यान रहे कि किसी भी आत्मा की पवित्रता की स्थिति की किसी भी एक प्रकार की मजबूत पृष्ठभूमि और भावभूमि तो अवश्य रूपेण होती ही है। एक अर्थ में यह स्थिति ही बीज रूप होती है और सार रूप में होती है। लेकिन दूसरे अर्थ में इसके इलावा भी स्थितियां और भी होती हैं। इस पवित्र स्थिति के धरातलीय उपयोग भी होते हैं। इस पवित्र स्थिति को पृष्ठभूमि बनाकर इसके विभिन्न प्रकार के उपयोग के बाद प्रत्येक आत्मा की पवित्र स्थिति का प्रगटीकरण विभिन्न प्रकार से होता है। उपरोक्त विवेचन विश्लेषण से शायद स्पष्ट हो गया होगा कि:-

A. प्रत्येक आत्मा की पवित्र स्थिति निराकार रूप की भी होती है। वह निराकार लोक में निराकारी अवस्था वाली पवित्रता की स्थिति होती है। वह पवित्र स्थिति पोटेंशियलिटी की स्थिति होती है और अनादि रूप से सबकी अपनी अपनी होती है और पूर्ण अवस्था की होती है।

B. आत्मा की साकारी स्थिति भी पवित्र स्थिति होती है। उसकी भिन्न भिन्न स्थितियां होती हैं। उसे कमोवेश उपरोक्त तीन प्रकार की स्थितियों के मापदंड से समझा जा सकता है। जैसा कि हम कह आए हैं कि साकारी पवित्रता की स्थिति को उपरोक्त तीन प्रकार के अभ्यास से बढ़ाया जा सकता है।

इन मुख्यतः दोनों प्रकार की पवित्रता की स्थितियों में फर्क सिर्फ इतना होता है कि अव्यक्त निराकारी पवित्र स्थिति तो सबकी अपनी अपनी उनकी स्वयं की पोटेंशियलिटी के अनुसार होती है। लेकिन साकार जीवन में पवित्र स्थिति अपने प्रगटीकरण में सबकी भिन्न भिन्न प्रकार की ही होती है। साकार स्थिति में रहते हुए मनुष्य की पवित्र स्थिति के स्वरूप बदलते अलग अलग होते हैं और कालान्तर में बदलते रह सकते हैं। बहुत बहुत धन्यवाद। नव वर्ष 2023 की पूर्व संध्या पर सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार हों।

BK Kishan Dutt.
Rajyoga Trainer.
Motivational Speaker.
Analyst.
Freelance Writer.