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आध्यात्म और भौतिक
नीरंतर क्रियाशील रहना मन कि सहज प्रवृत्ति है । यह मानव निर्मित कोई कृत्रिम बनावटी यांत्रिक ढांचा नहीं जिसे नियंत्रित किया जाए । यह ब्रम्हांड की अलौकिक ऊर्जाओं से संपन्न एक विकासशील प्राकृतिक तंत्र है ।
इसका सीधा संबंध ऊर्जाओं की रुपांतरण प्रक्रिया से है । इन ऊर्जाओं का रुपांतरण भावों एवं भावनाओं के विभिन्न क्षेत्रों में विस्तारित होता रहता है , जैसे सिद्धियों कि प्राप्ति, क्रोध, प्रेम, हास्य, यातना, सुख, शांति आदि ।
यह क्रियाकलाप सौर मंडल और ब्रम्हांड के गतिमान चक्रों पर आधारित होता है । नकारात्मक उर्जा ब्रह्मांडीय चक्रों की विपरीत दिशा ओं में विचरण करती रहती है जबकि सकारात्मक ऊर्जा ब्रह्मांडीय चक्रों से सार्थक होती है ।
बहाव के विपरीत दिशाओं में प्रवाहित नकारात्मक ऊर्जाऐं सकारात्मक ऊर्जाओं से अधिक प्रबल प्रतीत होती है , इसका एकमेव कारण है ध्यान का वास्तविकता पर केंद्रित ना होना । ब्रह्मांडीय चक्रों के अनुकूल गती का केंद्र ही वास्तविकता कहलाता है ।
ध्यान की अधिकतम गती आपको अपेक्षाओं एवं सपनों की दुनिया में प्रविष्ट करती है और न्युनतम गती भय से आतंकित करती है । इन दोनों ही स्थितियों में जिवन कि प्रक्रिया असहज सी दिखाई देती है ।
योगिक ध्यान धारना मन की इंद्रियों को ब्रम्हांड के अदभुत एवं चमत्कारीक ऊर्जाओं से जोड़ता है । गतिशील मन की इंद्रियों को वास्तविक ब्रम्हांड कीे स्थिर गती में विलीन करता है ।
योगिक ध्यान साधना का अवलंबन कर मन को शांत नहीं अपितु ब्रह्मांडीय पिंडो की गती में लयात्मक कीजिए क्योंकि शांत होने का अर्थ है गतीशुण्य होना ना की सापेक्षता में अंतर्धान होना ।

✒लेखक ,
©️विजय दागमवार
© 💫अक्षरांच्या ओळी