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(भाग-2. बार-बार बीमार )


"अब कैसी है तबियत? सिया ने पूछा। 

"हूह...ठीक हूं।" मेरी कांपती आवाज ने कहा। कम्बल के अंधेरे में मेरी आँखें खुली थी और नाक से निकलती गर्म सांसे मुझे जला रही थी।

रविवार का दिन था और मैं पूरा बीमार था। पूरी सर्दियों में दो बार मैं पूरा बीमार होता था। और ये  इस सर्दि मैं दूसरी बार बीमार हुआ था। वैसे छूट पुट तबियत मेरी हमेशा खराब रहती ही थी।

सिया ने पास आ कर मेरे चेहरे पर से कंबल हटाया और मेरे माथे पर हाथ रखा। 

"बुखार पहले से कुछ तो कम हुआ है।" सिया ने कहा। 

"कंबल वापस डालो।"  मैंने उसकी वैद वाणी सुनने के बाद कहा। "मेरा शरीर इतना क्यों तप रहा है?"

"गर्म दवा और गोलियों के कारण ऐसा है।" सिया ने बताया। "तुम पानी पी लो थोड़ा।"

सिया ने पास मेज पर पड़े जग से गिलास में पानी डाला और फिर मुझे बेड पर ऊंचा खींचते हुए एक हाथ से मेरा सर पकड़ा और दूसरे हाथ से तकिए लगा दिए। मैं पीठ के बल आधा लेटा और आधा बैठा हुआ था।

सिया ने पानी का गिलास उठाया और मेरे मुंह के लगाते हुए मुझे पानी पिला दिया। मेरा गला बुरी तरह से सुख रहा जिसने अब पानी से तर हो कर आराम पाया। लेकिन फिर भी प्यास न बुझी थी।

सिया मुझे खिलाने के लिए दाल-मूंग की खिंचड़ी  ले के आई थी। उसने खिंचड़ी को मेज से उठाया। 

"मेरा अब कुछ खाने का बिल्कुल भी मन नहीं है।" मैंने आंखे बंद करते हुए कहा।

"बिना खाए दवाएं कैसे काम करेगी।"सिया कहा। उसने एक चमच्च मेरे मुंह के पास किया मैंने बेमन सा निवाला अपने मुंह मे लिया और चबाने लगा। चार-पांच निवाले लेने के बाद मैंने बिल्कुल मना कर दिया। खाना मेरे गले से नीचे उतर ही नहीं रहा था। 
सिया ने मुझे थोड़ा सा पानी और पिलाया। उसने मुझे वापस नीचे कर, ऊपर कंबल डाला दिया। 

"थोड़ी देर में तुझे दवा और लेनी है।" सिया ने मुझे पहले से ही सचेत कर दिया ताकि अगली बार उठते वक्त मैं आना-कानी ना करूं और परेशानी के लिए तैयार रहूँ। लेकिन मुझे उसकी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।

मैं पिछले तीन महीनों से महनत में इतना डूब गया था कि अपने लिए एक भी दिन नहीं निकाल पाया था। हर दिन पेन पकड़ने प्रक्टिस में लगा रहा था।  अब जब शरीर ने जवाब देना शुरू कर दिया तो सब धरे का धरा रह गया ।

सिया मेरे आस पाद बिखरे बर्तनों को इक्कठा किया और कमरे से बाहर चली नीचे चली गई । कुछ देरे बाद वह वापस कुछ दवाएं ले के आई। 

उसने तीन अलग अलग टेबलेट्स एक-एक कर  मेरे मुंह में दी और पानी पिलाया। 

"तुम्हे पहले ही कहा था कि ठंड में व्हिलचेयर पर हरदम मत बैठे रहा करो, सर्दी लग जाएगी। लेकिन तुम कहां किसका कहा मानते हो?" सिया ने भड़ास सी निकाली।

"ये तो ऐसे ही होना ही होता है।" मैंने नरम लहजे से कहा। "यहां वहां बैठे रहने के कारण कुछ थोड़े ही हुआ है।"

"मैं रोज तुम्हारे पैरों को हाल देखती थी और कहा भी था कि इन्हें कम्बल के अंदर रखा कर।" सिया  जारी थी। "तुझे पैरों में कुछ महसूस नहीं होता है इसका मतलब ये तो नहीं की ये ठंडे हो कर तुम्हे बीमार नहीं बना सकते है। तुम्हारे पैर ज्यादा बैठे रहने के कारण ही सूजे रहते है।"

"अक्षर लिखना सीखना भी तो जरूरी है।" मैंने अपनी सफाई में कहा।

"धीरे धीरे भी सीख सकते हो।" सिया ने कहा। "और ऐसे क्या तुम जल्दी सीख जाओगे? काम तो काम के हिसाब से ही होगा। ये जो अब बीमार पड़ कर तंग हो रहे हो इसका क्या?"

सिया सही थी कि चीजें तो वक्त के हिसाब से ही होगी। लेकिन सिया को कैसे समझता कि मैं इंतजार नहीं कर सकता हूँ। मैं पैन पकड़ना सीखे बिना और तेज लिखना सीखे बिना चैन से नहीं जी सकता हूँ।

,,,,जारी,,,,,,

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