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बधाई हो आपकी ज़ागिरी बिक गई
*बधाई हो आपकी ज़ागिरी बिक गई..!*
सुनने में थोड़ा अजीब लग रहा है मगर ,यह सच है कभी-कभी लोग विचार के बिना ही बधाईयां दे देते हैं। उस बात की परवाह भी नहीं होती कि ,सामने वाला किस दौर से गुजर रहा है। यह कहानी से शायद ही कोई अछुता रहा हो ।आगे भी ऐसी बातें दोहराई जा सकती है। कोशिश कर रही हूं शायद यह कहानी पढ़ने के बाद आप बिना रुके ही अपने भाव व्यक्त कर सके।
*बधाई हो आपकी ज़ागिरी बिक गई..!!*

प्रताप सिंह के मोहल्ले में कदम रखते ही, आते जाते राहगिर उन्हें बधाइयां देने लगे ।वजह पूछने पर बड़े कटाक्ष भरे लहजे में बोले ,"वाह..! भाई माना कि आप बड़े लोग हैं ,कई कारखाने चल रहे हैं मगर पूश्तैनी जागीर बिक गई और आपको खबर नहीं। ऐसा तो नहीं या फिर हमारा मुंह मीठा करने में कंजूसी कर रहे हो "।और कुटिल मुस्कान के साथ मुस्कुरा रहे थे।
प्रताप सिंह सेठ मोती लाल के बेटे हैं ।गांव में उनकी कई छोटी बड़ी हवेली और सैकड़ों एकड़ ज़मीन है ।ऐसा नहीं की मोतीलाल को वह ज़मीन सीधी थाली में पड़ोसी हुई मिल गई या उन्हें किसी का हक मार हों ।मोतीलाल हो उनकी पत्नी गीता देवी ने दिन रात मेहनत करके अपने तन पर ग़रीबी बिता कर इस संपत्ति को बनाया था।
मोहल्ले से सीधे प्रताप सिंह हवेली की ओर मुड़ गए ।उनके पिता मोतीलाल को गुज़रे कई वर्ष बीत चुके थे मगर, मां गीता देवी आज भी चलती फिरती और अपने सारे काम खुद ही करती थी।
भरे गले से प्रताप सिंह ने, मां को पुकारा ,_"मां" कहां पर हो ? मां सुनो, मां मेरी बात सुनो" ..!कहते-रहते पता नहीं कब, अश्रुधारा उनके आंखों के बांध को तोड़ती हुई, गालों पर से होती हुई, धरती पर गिर रही थी ।
क्या हुआ ?क्या पहाड़ टूट गया ?इतना क्यों पुकार रहे हो? क्या कोई पीड़ा है या गिर गए? कहीं पर कोई चोट तो नहीं लगी तुम्हें ?यह आवाज इतनी दुखी से क्यों लग रही है? मां ने तुरंत पूछा..!
मां के...