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एहसास अपनेपन का - Part 2
एहसास अपनेपन का - Part 2

एहसासों की चादर ओढ़
रोज़ इल्जाम लगाएं है
उसने करीब होकर भी मुझसे
मेरे किस्से सबको सुनाएं है

मुल्जिम कहूं उसे या खुदको
रोज़ अजमाइश करता है
ज़ख्म देते हुए भी मुझको
मुझ पर ही रोज मरता है

दिनों को महीनो में तब्दील करके
सालों के रिश्ते की गवाही देगा
बचपना कहूं या जवानी की मार
मुझे रोज वो एक तबाही देगा

सस्ते में बिकी दुनिया मेरी
रोज़ उसने एक सौदा किया
देके तसल्ली बाहों की अपनी
मेरे दामन को तार तार किया

नाजुक सी जान लूटा कर
दिनों को मैं साल बताऊं
बेदर्द की दवा बन कर
खुद एक बीमारी कहलाऊ

ख़ामोशी की चूनर ओढ़ी
बेजान मोहब्बत का बुरखा पहना
दिन कटे या राते गुजरे
अंधेरे में चल दिल को कहना

तड़पती आहो की बदसूरत तस्वीर
मचलती हसरतो में तरस्ती निगाहों का सहना
कहने को बहुत कुछ है मगर
होश गवाके भी कुछ ना कहना
© firkiwali