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महाविनाशक तमराज (प्रथम भाग)
आज पूरा विश्व एक मानवद्रोही आपदा के कहर से जूझ रहा है। इस वैश्विक आपदा के
कहर से पूरा विश्व इस तरह छत-बिछत हो जाएगा ; ऐसा अनुमान बिल्कुल ही नहीं था ।
अब तक कोविड अथवा कोरोना एक मानवद्रोही आपदा का भयानक रूप ले चुका है और इस आपदा में जाने कितने हंसते खेलते परिवार उजड़ गए! जाने कितने लोग बस एक
कहानी बनकर रह गए!
ऐसी ही कहानी है शची(बदला हुआ नाम) और उसके हंसते खेलते परिवार की,जो इस प्राणान्तक महामारी के मुँह में समा गए और बनकर रह गए सिर्फ़ एक कहानी।
शची (बदला हुआ नाम) अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी है और राहुल (बदला हुआ नाम)
अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा है; जिसमें शची बड़ी और राहुल छोटा है। राहुल के पिता
एक सरकारी अध्यापक हैं और उसकी मां घर के कामकाज करती हैं। शची की शादी को
आज पूरे दो साल हो चुके हैं और राहुल अभी सात साल का छोटा बालक है जो दुनिया से
अनजान और इस आपदा से बेखबर है, जिसका मां-बाप और बहन के अलावा कोई नहीं है।
यह कहानी शुरू होती है राहुल की मां से जो राहुल और उसके पिता के साथ अपनी गांव को छोड़कर बाहर बड़े शहर में रहते हैं।
चारों तरफ फैली इस वैश्विक आपदा की चपेट में राहुल की मां आ जाती है और उन्हें जैसे
तैसे करके चिकित्सालय में भर्ती करा दिया जाता है उनकी देखरेख के लिए राहुल के पिता चिकित्सालय में ही रहते हैं और चंद घंटों बाद वह भी इस मानवद्रोही प्राणान्तक महामारी की चपेट में आ जाते हैं।
राहुल के लिए तो मानो जैसे उसकी दुनिया ही रूठ गई हो और वो बच्चा सारी चीज़ों से
बेख़बर घर में पड़ा था। इतने में एक कोविड स्पेशल टीम उसके घर जाकर घर को सील
करने लगती है तो उन्हें पता चलता है कि एक बच्चा भी है और उसका सैंपल लिया जाता है
तो पता चलता है कि इस द्रोही ने उस बालक को भी नहीं छोड़ा है।अब एक ही परिवार के
सारे सदस्य इस पापिनी से अपनी जिंदगी की जंग लड़ रहे थे और लड़ते लड़ते देश का भविष्य, परिवार का चिराग और माँ- बाप का सहारा अपनी जिन्दगी की जंग हार जाता है।
ये सूचना उसके जीजा जी को दी जाती है और वो उसकी बहन को लेकर जैसे तैसे चिकित्सालय पहुँचने ही वाले होते हैं कि राहुल की माँ को भी इस महामारी ने निःश्वास कर
दिया अर्थात जिन्दगी की जंग हरा दिया। ये ख़बर सुनते ही मानो शची का कलेजा ही फट
गया हो और वो चक्कर खा कर गिर जाती है फिर उसके पति ने उसे संभाला और जब उसे
होश आया तो वो ख़ुद को हॉस्पिटल के रिसेप्शन हाल में पाती है और वहीं उसे पता चलता है कि उसके पिता भी अब इस दुनिया में नही रहे। ये सुनकर इस बार उसकी आँखों से आँसू नही निकले। उसका कलेजा पत्थर हो चुका था। उसका पति उसके भाई राहुल और उसके माँ-बाप के पार्थिव र्के लिए जाने कौन- कौन से कागज में लिखते-पढ़ते, कभी मुर्दा घर तो कभी हॉस्पिटल के रिसेप्शन हाल में चक्कर लगा रहे था और शची को कुछ भी समझ नही आ रहा था। सुबह से शाम हो गई और अभी राहुल और उसके माँ- बाप की पार्थिव नही मिली थी। कुछ देर बहुत भाग दौड़ करने के बाद शची को राहुल और उसके माँ-बाप का शव मिला,जो एक प्लास्टिक के बैग में लपेटा हुआ था। चेहरे पर सफ़ेद प्लास्टिक की परत के कारण थोड़ा-थोड़ा मुँह दिखाई दे रहा था।
हॉस्पिटल एम्बुलेंस की सहायता से शवों को श्मशान ले जाया गया। वहाँ जाकर पता चला
कि शवदाह के लिए कल शाम को उनका नम्बर आएगा। इधर शची कभी श्मशान में काम करने वालों के थके हुए चेहरे देखती,कभी वहाँ पड़े शवों को देखती तो कभी वहाँ इंतज़ार करते रोते-बिलखते परिजनों को। ये सब देख-देखकर शची के दिमाग़ में सिर्फ़ एक बात आ रही थी। 'कोविड' अर्थात 'कैसी ये बिडम्बना है?' या 'कोरोना' अर्थात 'कैसा ये रोना है?'

"ये जमीं पर छाई जाने कैसी बिडम्बना और ये जहां में जाने कैसा रोना है;
नज़रें उठाकर देखो श्मशान और अस्पतालों में सिर्फ़ कोरोना ही कोरोना है।।"

शची के पति ने वहीं पास में ही बने इलेक्ट्रिक शवदाह से अंतिम संस्कार का सोचा और जाकर पता किया तो पता चला की सुबह के 6 बजे के बाद उनका नंबर आएगा तो उन्होंने शवों को एम्बुलेंस से उतरवाकर रखा दिया और जब उनकी पारी आयी तो पहले पिता का शव फिर माँ का शव उस इलेक्ट्रिक शवदाह के चेम्बर में डाला गया। इधर शची एकदम शांत टकटकी लगाए शवदाह के चिमनियों से निकलने वाले धू-धूकर अमावस्या की रात की तरह काले-काले धुएं को देखे जा रही थी। शची उस धुएंको इस तरह एकटक देख रही थी मानो उसकी ज़िन्दगी का ये अंतहीन अँधेरा हो; इधर राहुल के शव को शवदाह में डाला गया उधर वो शवदाह के चिमनियों को देख ही रही थी कि अचानक से चीख़ उठी कि देखो!देखो! वो हँसते हुए मेरा राहुल जा रहा है। देखो! उन काले-काले धुएं में वो मुस्कुरा रहा है उसकी आँखों सेआंसू छलके जा रहे थेऔर उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि उसके आँखों में समंदर ने घर कर लिया हो जिससे लगातार आंसुओं की धारा छलकी जा रही थी और शची सिर्फ़ एक ही रट लगाए थी। देखो! देखो! वो हँसते हुए मेरा राहुल जा रहा है। देखो ! उन काले-काले धुएं में वो मुस्कुरा रहा है।ये कहते हुए वो आस -पास खड़े हर शख्स से चीखती रही, मेरे राहुल की फोटो खींच दो वो अब कभी नहीं आएगा। उसकी ये बातें सुनकर वहाँ उपस्थित प्रत्येक इंसान फूट -फूट कर रो रहे थे। उसकी चीख़ सुनकर उसके पति ने बाहर आकर उसे संभालते हुए उन चिमनियों से निकलने वाले उन काले-काले कभी ना अंत होने वाले उस धुएं की फोटो खींच लेते
हैं; फिर उससे भी नही रहा गया तो वो वहीं श्मशान में काम करने वाले एक व्यक्ति से कहते हैं कि नरक ऊपर नहीं, यहीं है।

"सुबह से शाम हो गयी शवों को पाने में,
शाम से रात हो गयी उन्हें श्मशान लाने में।
ये नरक नही तो और क्या है?
फिर रात से सुबह हो गयी उन्हें जलाने में।।"

इस आपदा का कहर कुछ ऐसा है कि -

"पहले वक़्त नहीं था अपनों को गले लगाने के लिए,
आज वक़्त है तो तरस उठे हैं अपनों से हाथ मिलाने के लिए;
ये नरक नहीं तो और क्या है,
कि आज वक़्त है तो अपने ही नही हैं साथ मुस्कुराने के लिए।।''

कहने को ये महज एक कहानी मात्र है पर जाने कितने हँसते-खेलते राहुल और उसके
माँ-बाप इस मानव-प्राणहंतारक वैश्विक महामारी से जंग लड़ते-लड़ते श्मशानों के काले धुएं हो गए हैं। अगर हम अभी भी नहीं संभले तो दुनिया सिर्फ़ बनकर रह जायेगी महज एक कहानी और इसका जीता जागता उदाहरण है, देश का हर हॉस्पिटल हर श्मशान हर क़ब्रिस्तान। ना कोई पढ़ने वाला होगा ना कोई समझ ने वाला। मतलब कि फिर ना तो शची बचेगी और ना ही उसका पति।

हम लिपटे होंगें प्लास्टिक बैगों में,ना हमें कोई जलाने वाला होगा;
की हमनें अब भी गुस्ताख़ी तो,ना हमें कोई बचाने वाला होगा।
उठ जाग हो जाओ सचेत,हे अचेतन मानव!अब तुम;
वरना हमें ना कोई अब,जगाने वाला होगा।।
© A.k.mirzapuri