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रोशनी: हमारे लिए
** दीपावली का त्यौहार मनाया जा रहा था। चारों ओर चहल-पहल था। सब अपने- अपने घरों के सजावट में मशगूल थे। साफ - सफाई का दौर प्राय अंतिम दौर पर था। पूरा गांव रंग-बिरंगा दिख रहा था।
अनिल। भी अपने मां के काम में हाथ बंटा रहा था। अनिल मन ही मन उदास था। उसके पिताजी इस बार भी दिपावली में घर नहीं आ पा रहा थे। वे सीमा सुरक्षा बल में जवान थे।
त्योहारों में उन्हें विशेष जिम्मेदारी पूर्वक कार्यस्थल में रहना पड़ता है।
शाम का वक्त था। अचानक टीवी में समाचार आया कि सीमा पर तीन घुसपैठियों ने हमला कर दिया। हमारे जवानों लगातार उनसे मुकाबला करने में डटे हैं।
समाचार सुनकर अनिल और परेशान एवं दुखी हो जाता है। उसका पूरा ध्यान टीवी के समाचारों पर लगा रहता है।
मां अपने मन की व्यथा छूपाकर अनिल से पूजा की तैयारी करने के लिए बोलतीं है। पर अनिल शांत होकर कुछ सोचता ही रहता है।
अचानक एक ऐसा खबर आती हैं कि घर में मातम छा जाता है। धुंए की तरह खबर पूरे गांव में फ़ैल जाती है। एकाएक सब रुक जाता है। अनिल केघर में सिर्फ रोने की आवाज सुनाई देने लगती है। पूरा गांव शोक की लहर में डूब जाता है।
रात हो चुकी थी। किसी को अपने घर में दीपक जलाने की हिम्मत नहीं थी। तब सभी ने अपने -अपने घरों से एक-एक दीया लाकर अनिल के घर में रख दिया। एक वृद्ध काका ने सभी को संबोधित करते हुए कहा जिन लोगो के चलते हम उजाले में रहते हैं आज उनका घर कैसे अंधेरे में रहेगा। ऐसे ही कितने घरों के चिराग बुझ जाते हैं , हमें दीप - दान कर। न जाने ये सिलसिला कब थमेगा।
रीता चटर्जी