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अपनी आत्मा से किया गया वादा
बात उन दिनों की है जब मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। जैसा कि आप जानते ही हैं कि घर में आने जाने वाले रिश्तेदार आते जाते बच्चों को कुछ ना कुछ रुपए दे के जाते हैं। मैं उन पैसों को बहुत ही सहेज कर रखती। हाँ उन दिनों पाँच पैसे, 10 पैसे,25 पैसे, 50 पैसे भी बहुत हुआ करते थे। यूँ कह सकते हैं कि इतने पैसों में ही बच्चा अपने थोड़े मोड़े सपनों को पूरा कर लेता‌‌। मेरे सपने भी इन पैसों की तरह उड़ान भरने लगे। हर दिन इन पैसों को गिना करती। मानो ऐसा लगता जैसे हर दिन पैसे गिनने से बढ़ जाएँगें। फिर भी न जाने ऐसा करने में मजा आता। मन को तसल्ली मिल जाती है, सो अलग। मम्मी हमेशा कहती कि पिंकी पैसों को ध्यान से रखा कर। समझाने से समझ में नहीं आता तुझे। उन पैसों को लेकर मुझे बहुत डर रहता है कि मेरे छोटे भाई बहन चोरी न कर ले। शायद ₹150 जमा कर लिए थे। उन दिनों डेढ़ सौ रुपए बहुत हुआ करते थे। इसीलिए उनके डर से हमेशा अपने पैसों को यहाँ से वहाँ छुपाए फिरा करती। एक दिन मम्मी के मना करने के पश्चात भी शाम के समय उन पैसों को एक डिब्बे में रखकर, खेलने जाते समय उस डिब्बे को भी साथ लेकर चली गई। खेलते-खेलते शाम हो गई‌। अंधेरा गहराने लगा। जल्दबाजी में वह डिब्बा वही छूट गया। याद भी नहीं था उसे डिब्बे का। अगले दिन जब याद आया तो भाग कर वहाँ देखने गई। पर अफसोस ,ना मुझे वह डिब्बा मिला और ना ही मेरा पैसा। माथा-पीट कर रह गई। इसके अलावा मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं। मन ही मन सोचने लगी काश मैंने माँ का कहना माना होता, तो शायद आज मेरे पैसे मेरे पास होते। उसी दिन खुद से यह वादा किया कि आज से ऐसा कोई भी काम नहीं करूँगी, जिसमें मेरे माता-पिता की सहमति न हो। ऐसा कोई भी काम नहीं करूँगी, जिससे कभी भी उन्हें किसी के सामने शर्मिंदा होना पड़े। यह सीख मेरे लिए बहुत बड़ी थी। जिसका पालन जीवन में आज तक कर रही हूँ एवं करती रहूँगी।
डॉ अनिता शरण।