जाने कहाँ गए वो दिन......
आकाशवाणी ' ये शब्द ही धीरे धीरे अब लुप्त होने जैसा लग रहा है।
बहुत पुरानी भी नहीं, और नई भी नहीं, पर सोचा क्यों ना आज की दौर में एक बार ही सही, पर रेडियो को सब याद करे। जिसने हर पीढ़ी का दिल जीत लिया था।
बचपन में जितने भी मन पसंद चीज थे, सबसे मन पसंद था ' रेडियो '।
सुबह का वो समाचार.. " नमस्कार, आज के मुख्य समाचार.........
इसी वाक्य से दिन की शुरुआत होती थी, दादा जी का भी ठीक उसी समय चाय पीने का समय हुआ करता था। चाय भी ऐसे पीते थे की , ध्यान समाचार पे है की चाय के स्वाद पर , ये कोई नहीं जान पाता था, उसी समय पिताजी का अखवार ढूँढना, और हम सब भाई बहनों का स्कूल जाने के लिए तैयार होना। माँ को तब जैसे देखे थे, सुबह सुबह इन सभी ज़िम्मेदारियों को बराबर से और समय रहते अच्छे से शांति पूर्वक समाप्त करना , अब वैसी सुबह शायद ही कही हो।
रेडियो एक ऐसा सदस्य बन गया था, हमारे परिवार में, जिसके होने से हर किसीके चेहरे पर खुशी, परिवार का हर सदस्य उसके साथ अपना ताल मिलाते हुए, गुनगुनाते हुए अपना काम करता था। और उसके बीमार पड़ जाने पर, ज़रा सा भी उसको चोट लगने पर (कभी कहीं से, या किसीके हाथ से गिर जाने पर, फिर ना बजना) सब के चेहरे पर उदासी छा जाती थी। ऐसा था रेडियो के साथ लगाव।
दिन भर केकाम के बाद शाम को फौजी भाईयों के साथ वो ' जय माला ' के सुमधुर गाने, और रात को सोते समय, ' छाया गीत ' में आने वाले वो पुराने गीत, चाहे दर्द भरी हो, या प्यार भरे गीत हो, सभी गाने लाजवाब होते थे। सिरहाने के पास कम आवाज़ मे बजती हुई वो रेडियो अंत मे एक प्यारी सी नींद सबको दे कर, वो भी आराम के साथ इंतज़ार करता था फ़िर अगले सुबह की।
बहुत पुरानी भी नहीं, और नई भी नहीं, पर सोचा क्यों ना आज की दौर में एक बार ही सही, पर रेडियो को सब याद करे। जिसने हर पीढ़ी का दिल जीत लिया था।
बचपन में जितने भी मन पसंद चीज थे, सबसे मन पसंद था ' रेडियो '।
सुबह का वो समाचार.. " नमस्कार, आज के मुख्य समाचार.........
इसी वाक्य से दिन की शुरुआत होती थी, दादा जी का भी ठीक उसी समय चाय पीने का समय हुआ करता था। चाय भी ऐसे पीते थे की , ध्यान समाचार पे है की चाय के स्वाद पर , ये कोई नहीं जान पाता था, उसी समय पिताजी का अखवार ढूँढना, और हम सब भाई बहनों का स्कूल जाने के लिए तैयार होना। माँ को तब जैसे देखे थे, सुबह सुबह इन सभी ज़िम्मेदारियों को बराबर से और समय रहते अच्छे से शांति पूर्वक समाप्त करना , अब वैसी सुबह शायद ही कही हो।
रेडियो एक ऐसा सदस्य बन गया था, हमारे परिवार में, जिसके होने से हर किसीके चेहरे पर खुशी, परिवार का हर सदस्य उसके साथ अपना ताल मिलाते हुए, गुनगुनाते हुए अपना काम करता था। और उसके बीमार पड़ जाने पर, ज़रा सा भी उसको चोट लगने पर (कभी कहीं से, या किसीके हाथ से गिर जाने पर, फिर ना बजना) सब के चेहरे पर उदासी छा जाती थी। ऐसा था रेडियो के साथ लगाव।
दिन भर केकाम के बाद शाम को फौजी भाईयों के साथ वो ' जय माला ' के सुमधुर गाने, और रात को सोते समय, ' छाया गीत ' में आने वाले वो पुराने गीत, चाहे दर्द भरी हो, या प्यार भरे गीत हो, सभी गाने लाजवाब होते थे। सिरहाने के पास कम आवाज़ मे बजती हुई वो रेडियो अंत मे एक प्यारी सी नींद सबको दे कर, वो भी आराम के साथ इंतज़ार करता था फ़िर अगले सुबह की।