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चाय की चुस्की

बाबा बहुत चाय पीते थे । हर वक़्त चाय चाहिए होती थी। चाय की एक केतली हर वक़्त चूल्हे पर हुआ करती और मां बिना ब्रांड वाली कोई सी भी चायपत्ती डालकर चाय बनाती रहती । चाय हमारे लिए केवल एक पेय ही नहीं था बल्कि रोटी खाने का एक माध्यम भी था । बहुत बचपन से हम भाई बहनों को भी चाय चाहिए होता था । सुबह मुंह हाथ धोते ही हमें चाय की एक प्याली के साथ रात की बची रोटी नमक - तेल से मिलाकर रोल बनाकर दी जाती और उसी चाय में डुबोकर हम उसे बड़ी चाव से खाया करते । गरमा गरम रोटी हमें पसंद नहीं थी इसीलिए रात को ही ज्यादा रोटियां सेककर रख दी जाती । बासी रोटी वो भी नमक तेल लगी का चाय के साथ का जायका आज भी ताज़ा है । फ़िर शाम को चाय - मूढ़ी का मजा लेना । बाटी में चाय और उसमें तैरती मूढ़ी को चम्मच से निकालकर उसे खाना बड़े संयम और अनुभव का काम था जिसे हम बख़ूबी जानते थे । अक्सर शाम को चाय रोटी ही खाकर सोना होता था । दूध रोटी हमें रास न आता था चाहे उसके पीछे जो भी वजह रही हो । दूध भी बस चाय की असली काली रंगत को बस थोड़ा गोरा रंग ही देने के लिए डाला जाता । आज वाली फूल क्रीम की चाय नहीं होती थी । आग में जली - जली सी काली केतली ने ही हमारे बचपन को अपना रंग दिया था । चाय ने ही हमें बड़ा किया । फिर ट्यूशन पढ़ाने का दौर आया तो जैसे चाय मानो जिंदगी से और भी जुड़ती चली गई । जिस घर में जाओ वहीं एक कप प्याली चाय के साथ नमकीन बिस्कुट और कभी दालमोठ ।

दोस्तों के साथ तरके सबेरे उठकर सैर पर जाना और गुटका बिस्कुट का पूरा पैकेट और मिट्टी की भांड में चाय की चुस्की और अंतहीन बातों का दौर । कभी शहीद चौक पर राजू भैया की गहरी चाय , कभी पी. एन. टी. चौक पर शाम की चाय । ओ. टी. पारा शिव मंदिर के पास की गुमटी की चाय की यादें । दुर्गा स्थान चौक की बिल्कुल अलग स्वाद वाली चाय का जायका वो भी इलायची वाली कौन भूल सकता । शिव - मंदिर चौक पर अशोक भैया की चाय और साथ में उनका व्यव्हार अंतर्मन में आज भी ताज़ी है । मिर्चाईबाड़ी चौक के पास डब्बू भैया की दिलकश चाय का जोड़ कहां ? शाम को रेलवे फिल्ड की नींबू वाली चाय और दोस्तों की भीड़ और राजीव बाबा की कभी न खत्म होने वाली गुफ्तगू और अलौकिक ज्ञान का वो दौर किसे याद न होगा ? चाय के साथ गोकुल स्वीट्स की निमकी का स्वाद कैसे फीका हो सकता है । बड़ा बाज़ार और रबिया होटल का चाय और समोसे का कर्ज आज भी है । श्यामा टॉकीज के पास लेकर वाली चाय भी कभी कभी पसंद की जाती रही जो हमें स्वाद भले ही उतना न दे पाती मगर मधुर पलों का अहसास जरूर दिया करती थी ।मेडिकल कॉलेज की कैंटीन में डॉक्टर बंधु (अक्की बाबू) के साथ चाय पर चर्चा और रास्ते में झा जी के ढाबे पर चाय और पनीर पकोड़े पर बहस का नशा अफीम के नसे से कम न था । हर चाय की दुकान पर साथ राजीव बाबा का होता ही था। हफला - मरंगी से लेकर काकी की दूकान , बस चाय और राजीव बाबा का अंतहीन साथ । चाय की बात हो और डॉक्टर बाबू विवेक की बात न हो तो चाय का किस्सा अधूरा होगा । पहली बार कोई दोस्त मिला था जो खुद चाय बनाकर कर पिलाता । छोटी गैस स्टोव और चाय का सॉसपैन बस यही उसकी दुनिया होती । घंटों खौलती गहरी दूध वाली वो असाधारण चाय और उसके बीच का गहन वार्तालाप । प्यार पर गंभीर चर्चा और चाय की चुस्की का वो दौर मानो वक़्त थम सा जाता । चाय तो बस एक जरिया था । असली स्वाद दोस्तों के साथ का था । चाय रोमांस है । चाय की चुस्की विचार है । इस चाय ने सबको न जाने कितने अनमोल रिश्तों का तोहफ़ा दिया है । चाय बस एक चुस्की भर नहीं बल्कि सामाजिक जुड़ाव की एक मजबूत कड़ी थी जिसने हम सबको साम्यता के बंधन से जोड़ा था जहां बस प्रेम का माधुर्य रस हुआ करता था जिसकी मिठास जेहन में आज भी ताज़ी है ।
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(राजू दत्ता ✍🏻)

[उन सभी मित्रों और चायवाले बड़े भाइयों और उनके परिवार वालों को समर्पित जिसने अपने प्रेम से हमें सदा अनुग्रहित किया है । बहुत सारे मित्रों और लोगों के नाम उद्धतरित नहीं किए जा सके परन्तु हर किसी ने प्रेम के माधुर्य रस से हमें सींचा है । हर एक व्यक्ति मेरी अंतरात्मा से जुड़ा है । उन सबको मेरा नमन है ।🙏🏻🙏🏻🙏🏻]
© राजू दत्ता