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अंतर
किसी ने पूछा एक राजा और सन्यासी में सबसे बड़ा अंतर क्या होता है ?

बहुत सुंदर प्रश्न है। इसका उत्तर मैं हम कथा के माध्यम से देना चाहते । कथा का आनंद लें।

एक वृद्ध संन्यासी अपनी कुटिया में रहकर साधन भजन करते थे। वहां के राजा कभी कभी उनके पास जाकर ज्ञान की बातें सुना करते थे।

संत की सेवा का महत्व जानकर उन्होंने महात्माजी से आग्रह किया कि महाराज! मैं आपके लिए कुछ अच्छी व्यवस्था करना चाहता हूं।

संन्यासी ने कहा कि मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, मैं अपनी व्यवस्था में प्रसन्न हूं। राजा के विशेष आग्रह करने पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।
स्वीकृति लेकर राजा ने अपने राज भवन के निकट ही महात्माजी के लिए सुंदर भवन बनवाया।

सुख-सुविधा हेतु सारी सामग्री भवन में जुटा दिया। भवन के सामने सुंदर उद्यान लगवा दिया। सवारी के लिए हाथी घोड़े और सेवा के लिए अनेक सेवकों की व्यवस्था उन्होंने कर दी। महात्माजी उसी में रहने लगे। अब उनके कपड़े भी कीमती और सुंदर हो गए।

कुछ दिनों के बाद एक दिन राजा और महात्माजी साथ में घूमने के लिए निकले। रास्ते में राजा ने उनसे पूछा— "महाराज! अब मुझ में और आप में क्या अंतर रहा?'
महात्माजी ने कहा—"तनिक आगे चलो, फिर बतलाऊंगा।"

चलते चलते वे लोग दूर निकल गए। राजा को थकावट हो रही थी। कुछ जरूरी राजकीय कार्य भी उनको स्मरण हो आया। अतः राजा ने निवेदन किया कि हमलोग नगर से बहुत दूर निकल गए हैं, अब लौटना चाहिए।

महात्माजी ने कहा--" थोड़ा और चलो।" थोड़ी देर और चलने पर सामने जंगल आ गया। राजा ने घबराकर कहा—"महाराज! अब आगे जाना ठीक नहीं है। शाम होने को है, लौटकर भवन चलना चाहिए।"
महात्माजी ने उत्तर दिया--"अब लौट कर करना ही क्या है?

मेरी तो लौटने की इच्छा नहीं है। राज-सुख तो हम लोगों ने बहुत भोग लिए। अब चलो वन में रहकर ही ईश्वर का भजन करेंगे।" राजा हाथ जोड़कर बोला— "महाराज! मुझे स्त्री है, बच्चे हैं, राज की व्यवस्था देखने वाला कोई नहीं है। जंगल में रहने की साहस भी मुझ में नहीं है। मैं अब आगे नहीं जा सकता।"

महात्माजी ने हंसते हुए कहा--"राजन! मुझ में और तुझ में यही अंतर है। बाहरी रहन-सहन से क्या होता है? हृदय का भाव ही प्रधान है। जिसका मन भोगों में आसक्त है वह वन में रहकर भी संसारी है

और जिसका मन अनासक्त है वह महल में रहकर भी विरक्त है, संन्यासी है। तुम महल में जाओ और मैं अपने लक्ष्य की ओर चलता हूं।" ऐसा कहकर महात्माजी घने जंगल में ओझल हो गए।

तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है कि जिस व्यक्ति को आनंददायक ब्रह्म-पीयूष मिल गया है, वह मृगतृष्णा का जल पीने के लिए दौड़ नहीं लगाता है।

ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै। तो कत मृगजल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै

जय जय श्रीराधे