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कांव - कांव
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बात उन दिनों की है जब हम तरके कौव्वे की कांव - कांव और मुर्गे की बांग से उठा करते थे । यही हमारी अलार्म घड़ी हुआ करती थी जो बिना चाबी और बैटरी के ही बिना रुके हमेशा बजकर हमें उठा ही दिया करती थी । भोर का संगीत इसी कौवे की कांव - कांव से आरंभ होकर गायों के गले में बंधी घंटियों के सांझ के संगीत पर खत्म हुआ करती। रात का संगीत झिंगुरों की झनकार और रोशनी जुगनुओं की टिमटिमाहट से हुआ करती थी । जिंदगी की सुबह भले ही कांव - कांव से शुरू होती मगर शाम मधुर घंटियों से हुआ करती । जबसे मोबाइल की नई दुनिया आयी और चारों तरफ टावरों का जाल बिछा , कौवे रूठकर चले गए और अपनी कांव - कांव साथ ले गए और छोड़ गए बस एक नई कांव - कांव । यह नई कांव - कांव मोबाइल की मचलती फनकार की है । अब जिंदगी की सुबह मोबाइल की कांव - कांव से शुरू होकर न जाने कब खत्म होती पता ही नहीं चलता । गायों के गलों की घंटियां अब सुनाई देनी बंद हो चुकी है । जुगनुओं की टिमटिमाहट अब मोबाइल की लाईट में गुम हो चुकी है । जिंदगी का हर साज अब मोबाइल से निकलता है और हम बिना खोए ही खोए - खोए से रहने लगे हैं । दूरियों को समेटने के लिए बेतार का तार बनाया गया और अब सारे तार उलझकर मानो टूट से गए हों और दरमियान अब और भी गहरे होते चले जा रहे हैं । जिंदगी के मायने अब वर्चुअल होते जा रहे हैं। अब बात हो जाया करती है और मुलाक़ात नहीं होती । अब मुलाक़ात वीडियो कॉलिंग से ही हो जाती है । अपनों के स्पर्श का वो स्पंदन अब जाता रहा है । अब बस मोबाइल की वाइब्रेशन का ही स्पंदन शेष बचा है । पहले दूरियां खला करती थीं और मिलन की बैचैनी बैचैन किए देती थी और अब बस एक बटन ही तो दबाना होता है । अब कोई बैचैनी नहीं , कोई इंतज़ार नहीं । रिश्ते एक डिब्बे में सिमटकर रह गए हैं ।

चिट्ठियों का सिलसिला भी अब जाता रहा है क्योंकि अब कहने और लिखने को कोई बात रही ही नहीं । सबकुछ बोलकर या टेक्स्ट कर सेंट कर देने का रिवाज है । पोस्टकार्ड , अन्तर्देशीय और बैरंग लिफाफे की जरूरत नहीं रही । अब चिठ्ठियों की लिखावट को सहेजकर रखने का दौर खत्म हो चुका है और अब दौर है गूगल ड्राइव में मेमोरी सेव रखने का । अब रिश्तों की यादें दिलों में नहीं हार्ड डिस्क और गूगल ड्राइव में रखे जाने का नया रिवाज है ।दिलों में यादें संजोकर दिल पर ज्यादा बोझ नहीं डाला जाता आजकल फिर भी दिल की बीमारी न जाने क्यूं बढ़ती ही जा रही आजकल। अब रात होती नहीं तारीखें बदल जाया करती हैं । भोर का सूरज अब कब आता और कब सांझ ढलती पता ही नहीं चलता । सामाजिक दूरियों को एक डब्बे में समेटकर भी दूरियों को बढ़ाती हुई यह एक नई जिंदगी अब वही कौव्वे की पुरानी कांव - कांव की कर्कश आवाज की रहस्यमयी मिठास को ढूंढती फिरा करती है । अब कौव्वे नहीं आते और ना ही मुर्गे की बांग सुनाई देती है , बस सुबह - सुबह एक रिंगटोन हमें टोन मानकर उठा देता है और फिर पूरा दिन अपनी ही टोन में टोनमय कर दिया करता है । जिंदगी अब इस नई टोन से बाहर आकर फिर वही पुरानी टोन चाहती है मगर वो काफ़ी पीछे रह चुकी है और इसी कशमकश में जिंदगी अपनी ही टोन में बीती ही जा रही है ।
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© राजू दत्ता