...

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अधूरी आश
फ्लैट की खिड़की  से सुबह की धूप में ये फूलों की क्यारियां  कितनी अच्छी लग रही है  . रोड से लगातार गाड़ियों की आवाज फ्लैट तक आती ही रहती हैं. पर अच्छा भी है,  इससे मन लगा रहता है.

जब राजदीप (किरण के पति) ऑफिस चले जाते हैं तब  ये गाड़ियां अकेलापन महसूस नहीं होने देती है ;ऐसा लगता है अकेली नहीं हूं बहुत सारे लोगों के बीच हूं।

चाय का सिप लेते हुए  किरण यही सोच रहे थी।

हम  हैं भी तो दो ही जने यहां,  जयपुर  जो आ गए राजदीप ।   
मां बाबूजी ,इनके छोटे भाई सब बनारस ही हैं।
यह शहर भी बड़ा सुन्दर है बस यहां गंगा नहीं बहती ।

तभी राजदीप स्नान करके बाहर आए, ऑफिस के लिए तैयार होने लगे।

किरण - आप की चाय टेबल पर रख दूं।

राजदीप - हां

राजदीप अखबार के पन्ने पलटते हुवे , बड़ी जल्दी में अखबार पढ़ते हुवे,
राजदीप ने अपनी चाय उठाई ओर किरण की तरफ देखते हुवे बोला।

राजदीप- आज काफी खुश लग रही हो.

किरण - हां , आज बड़ा अच्छा सा लग रहा है, ऐसा मन कर रहा है अपनी पसंद के गाने सुनू, बहुत दिनों बाद ऐसा लग रहा है.

राजदीप - मुस्कुराते हुवे, अच्छी बात है, तुम्हारा मन तो लगा, मुझे तो   डर था अनजान शहर में तुम्हारा मन केसे लगेगा।

राजदीप - अच्छा में अब निकलता हूं, बैग उठाते हुवे। अपना ध्यान रखना, कुछ बात हो तो कॉल कर लेना।

किरण - हां, ध्यान से जाना।

राजदीप - हां, मुस्कुराते हुवे।

किरण ने दरवाजा लगा दिया। ओर बेडरूम में चली गई थी।

घर का काम आज किरण ने जल्दी  कर दिया था ओर तैयार भी जल्दी हो गई थी. 

किरण आइने के सामने बैठी हुई, एक खुशी एक उमंग अपने मन में महसूस कर रही थी।

किरण धीरे धीरे गुनगुनाते हुवे -

' जाना पिया के देश, मोहे जाना पिया के देश
मनवा , बदले है कितने भेष..जाना पीया के देश....

शादी को 3 साल हो गए, राजदीप ने हमेशा सम्मान व प्यार दिया पर आज भी दीपांशु का चेहरा आंखो के सामने रहता है।

उसकी वो हसीं, मीठी मीठी बातें, उसकी बरोनी, मासूम सा चेहरा, उसके कान भी बड़े सुन्दर लगते थे मुझे।

मेरे भाई का दोस्त था वो, अगली गली में ही रहता था, पर, कभी उसके घर के आगे से निकलने की हिम्मत ना हुई मेरी।

घरवाले कहीं जाने ही नहीं देते थे,वो  पड़ोस के गुड्डी दीदी ने भाग के क्या शादी कर ली, सब घरवाले को लगता था कि सब  लड़किया ही भाग जाएगी।

में तो थी भी अकेली लड़की पूरे परिवार में.

ना बाबा ना अपने बस का नहीं ,कहीं भागना, मुझे तो बड़ा डर लगता था, ये सब सोचते हुवे भी।

बी. ए. करने के बाद मैने ताऊजी का एनजीओ यूंही जॉइन कर लिया था, वहां दीपांशु भी काम करता था. पहले पहल में कितना डरती थी , हिचकिचाती थी उससे बात करते हुवे.

पर वो बातूनी बातें...