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हा तब इंसान जगेगा
लिखुगा जब मैं एक कोने में पड़ी खाट को
उस पड़े बीमार निसहाय बाप को
उसके अंतर्मन में उमड़ी व्यथा को
एक 70 साल की बूढ़ी माई को
उसकी करुण चीत्कार को
उस ममतामई मां के रूदन को
हजारों बेटो का चेहरा शर्म से झुकेगा
हा तब इंसान जगेगा
लिखुगा मैं जब एक बेटी के मन को
उसकी ओर लार टपकाती निगाहों को
अपने अपनो में भी उसमे पनपपते हुए डर को
मोमिता जैसी खबर पे उसके दुखते दिल को
लड़की होने पे पछताती उसकी सोच को
तब उन हैवानों का पौरुष भी मरेगा
हा तब इंसान जागेगा
लिखूंगा जब एक बच्चे के टूटते स्वप्न संसार को
उसका बचपना छीनते हुए हाथ को
खिलौने छोड़ हाथ में पकड़ाई कुदाल को
या नन्हे हाथों से बर्तन घिशने की आवाज को
तब उनका बचपन छीनने वालो का
थोड़ा मूंह शर्म से लाल होगा
हा तब इंसान जागेगा
लिखिगा एक शराबी से पीड़ित परिवार को
उसकी बीवी को पड़ती तमाचो की आवाज को
उसकी गुड़िया के पछताते अपने कर्म।को
उसकी माई के मर चुके कलेजे को
हर शराबी का थोड़ा नशा उतरेगा
हा तब इंसान जगेगा
लिखुगा जब एक बेरोजगार नौजवान को
कुछ न कर पाने के उसके काश को
अपनी डिग्रियों को देख उसके पीड़ित मन को
जमाने से निट्ठला जैसे मिलते तानो को
तब सरकार का थोड़ा माथा हिलेगा
हा तब इंसान जगेगा
लिखुगा जब दूषित होते पर्यावरण को
एक मुट्ठी छाव खोजते बुजर्ग को
खत्म होते हुए आमो से लदे पेड़ो को
हवन के लिए लडक़ी तक न मिलने वाले कल को
तब जाके कुल्हाडियो का धार खत्म होगा
हा तब इंसान जगेगा
लिखुगा मां भारती के चिंतित मन को
खुद की लाज ढकते हुए उसके तन को
तब हर एक हिन्दुस्तानी घुट घुट मरेगा
हा तब इंसान जगेगा
© शिविषा