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क्या पाया
आशीष नाम का एक लड़का था। उनके और छः भाई और एक बहन भी थे। यह कहानी करीब १९६० से शुरू हुई। सभी भाई बहन आपस में लड़ते झगड़ते हुए बढ़ रहे थे। सभी में काफी मेल भी रहा। साथ में कब्बडी खेलते थे तो कभी पतंग उड़ाते थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आया। घर की जिम्मेदारी आई। कालेज की पढ़ाई नहीं कर पाये।
आशीष ने घर की जिम्मेदारी उठाना शुरू कर दिया। कपड़े की दुकान में काम किया।जो पैसे मिलते थे अपने पिता को दे देते थे। उनके और बड़े भाई लोग माता पिता को छोड़ दिए थे।दो छोटे भाई और छोटी बहन का ख्याल रखने लगे। माता पिता ने उसकी शादी करा दी।बहन की भी शादी हो गई। माता पिता भी गुजर गए।

उसकी दो बेटियां हुई। जब छोटी बेटी डेढ़ साल की थी और बड़ी अढ़ाई साल की तब पत्नी गुजर गयी। दोनों को पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया। दोनों को पालने पोसने में उनकी भतीजी चंदना और भतीजा राजू बहुत मदद किया। बड़ी बेटी की शादी में ससुर ने भारी मांग किया। मांग पूरा करने के लिए उन्होंने अपना घर बेच दिया।दहेज के साथ वह चली गई।
छोटी कुछ साल तक पास रही। अपनी दीदी और चचेरे भाई के साथ रहने लगी। कुछ वर्ष बाद उसकी भी शादी हो गई।अब आशीष अकेलापन महसूस करने लगा। भतीजी और भतीजा उनका खाना पिना दिया करता है।
अब वह सत्तर साल का हो गया है।
एक कैंसर रोगी हो गये हैं। लोग उनसे नफरत करते हैं। भतीजा और छोटा भाई और उनके बच्चे देख भाल करते हैं। उनके पास अर्थ न
होने कारण सही देखभाल नहीं हो पाता है।
बाकी रिश्तेदार मुंह मोड़ लिया है। यहां तक कि बेटियां भी बोझ उठाना नहीं मांगती है।
वे बहाना बनाकर नहीं आती है।
एक दिन काफी दर्द के कारण जोर जोर से रोने लगा।
बहन आई और बोली कबतक रोओगे।उठो , हिम्मत बांधो।उठ न पाया। आशा भरी नजरों से देखने लगा शायद कुछ अच्छा हो जाए।
समय समय पर सोचता है आखिर उसने अपने बलिदान के बदले क्या पाया।