आधुनिक न्याय
जया और माया शिशु को लेकर लड़ती झगड़ती पुलिस स्टेशन पहुंची। दोनों ने पुलिस अफसर से शिकायत की।
जया : सर, यह बच्चा मेरा है। मेरी बहन माया ने इसे चुरा लिया है। मेरा बच्चा मुझे दिला दीजिये।
माया : नहीं सर, जया झुठ बोल रही है। यह बच्चा मेरा है। वह इसे जबरन हड़पना चाहती है। आप इसके विरुद्ध कार्यवाई कीजिये।
दोनों की बातें सुनने के पश्चात् पुलिस अफसर ने कहा, "यह पुलिस का मामला नहीं है। आपलोग कोर्ट में जाइए। वहीं इसका फैसला होगा।"
दोनों औरतें कोर्ट चली गयी और वहां शिकायत की। अधिकारी ने उन्हें वकील से संपर्क करने की सलाह दी। दोनों औरतों ने दो वकीलों से संपर्क किया। अपना कंसल्टेंसी फीस लेने के बाद वक़ीलों ने उन्हें केस दर्ज कराने की सलाह दी। वे राजी हो गईं। अपनी अपनी फीस लेकर वक़ील पीटीसन तैयार करने लगे। फिर केस फाइल किया। कोर्ट के आदेशानुसार विरोधी पक्ष को सम्मन भेजा गया। सम्मन पाकर दोनों औरतें अपने वकीलों के द्वारा कोर्ट में हाजिर हुई। कोर्ट ने उन्हें अपना जवाब फाइल करने का आदेश दिया।
जया के वक़ील ने पीटीसन फाइलकर कोर्ट से दरख्वाश्त की, जब तक फैसला नहीं हो जाता, बच्चे को सुरक्षित होम भेजा जाए। कोर्ट ने अनुरोध स्वीकार कर लिया। बच्चे को माया से लेकर शेल्टर होम भेज दिया गया। शिशु बिन माँ का हो गया। फिर कानूनी कार्यवाही आरम्भ हुई। कई तारीखें पड़ने के बाद वकीलों ने अपना रीटेन आबजेक्सन और रीटेन स्टेटमेंट फाइल किया। औरतें कोर्ट की चक्कर लगाती, फीस देती, वकील की झिड़कियां सुनती और तारीख लेकर घर वापस लौट आती। इस तरह तारीख पर तारीख पड़ते रहे, जज बदलते रहे और पंद्रह वर्ष बीत गए। औरतें कोर्ट का चक्कर लगाते उब चुकी थी। बच्चा शेल्टर में अब जवान हो चुका था। उसे नहीं पता, उसके मां-बाप कौन हैं? वह शेल्टर को ही मां-बाप जानता था।
वक़ील ने उन्हें हाई कोर्ट में अपील करने की सलाह दी। फिर क्या था, हाई कोर्ट में अपील के लिए पीटीसन तैयार होने लगे। मोटी फीस की मांग की वकीलों ने। आखिर हाई कोर्ट में केस फाइल हो गए। चार वर्षों तक बेंच दर बेंच घूमने के बाद केस के सुनवाई की तारीख मुक्कमल हो पाई। औरतों ने राहत की सांस ली, चलो अब तो फैसला हो जाएगा। नियत तारीख पर दोनों औरतें कोर्ट पहुंची पर एक पक्ष के वक़ील के गैरहाजिर रहने से...
जया : सर, यह बच्चा मेरा है। मेरी बहन माया ने इसे चुरा लिया है। मेरा बच्चा मुझे दिला दीजिये।
माया : नहीं सर, जया झुठ बोल रही है। यह बच्चा मेरा है। वह इसे जबरन हड़पना चाहती है। आप इसके विरुद्ध कार्यवाई कीजिये।
दोनों की बातें सुनने के पश्चात् पुलिस अफसर ने कहा, "यह पुलिस का मामला नहीं है। आपलोग कोर्ट में जाइए। वहीं इसका फैसला होगा।"
दोनों औरतें कोर्ट चली गयी और वहां शिकायत की। अधिकारी ने उन्हें वकील से संपर्क करने की सलाह दी। दोनों औरतों ने दो वकीलों से संपर्क किया। अपना कंसल्टेंसी फीस लेने के बाद वक़ीलों ने उन्हें केस दर्ज कराने की सलाह दी। वे राजी हो गईं। अपनी अपनी फीस लेकर वक़ील पीटीसन तैयार करने लगे। फिर केस फाइल किया। कोर्ट के आदेशानुसार विरोधी पक्ष को सम्मन भेजा गया। सम्मन पाकर दोनों औरतें अपने वकीलों के द्वारा कोर्ट में हाजिर हुई। कोर्ट ने उन्हें अपना जवाब फाइल करने का आदेश दिया।
जया के वक़ील ने पीटीसन फाइलकर कोर्ट से दरख्वाश्त की, जब तक फैसला नहीं हो जाता, बच्चे को सुरक्षित होम भेजा जाए। कोर्ट ने अनुरोध स्वीकार कर लिया। बच्चे को माया से लेकर शेल्टर होम भेज दिया गया। शिशु बिन माँ का हो गया। फिर कानूनी कार्यवाही आरम्भ हुई। कई तारीखें पड़ने के बाद वकीलों ने अपना रीटेन आबजेक्सन और रीटेन स्टेटमेंट फाइल किया। औरतें कोर्ट की चक्कर लगाती, फीस देती, वकील की झिड़कियां सुनती और तारीख लेकर घर वापस लौट आती। इस तरह तारीख पर तारीख पड़ते रहे, जज बदलते रहे और पंद्रह वर्ष बीत गए। औरतें कोर्ट का चक्कर लगाते उब चुकी थी। बच्चा शेल्टर में अब जवान हो चुका था। उसे नहीं पता, उसके मां-बाप कौन हैं? वह शेल्टर को ही मां-बाप जानता था।
वक़ील ने उन्हें हाई कोर्ट में अपील करने की सलाह दी। फिर क्या था, हाई कोर्ट में अपील के लिए पीटीसन तैयार होने लगे। मोटी फीस की मांग की वकीलों ने। आखिर हाई कोर्ट में केस फाइल हो गए। चार वर्षों तक बेंच दर बेंच घूमने के बाद केस के सुनवाई की तारीख मुक्कमल हो पाई। औरतों ने राहत की सांस ली, चलो अब तो फैसला हो जाएगा। नियत तारीख पर दोनों औरतें कोर्ट पहुंची पर एक पक्ष के वक़ील के गैरहाजिर रहने से...