...

1 views

मानसिक सीमाओं को लांघकर लक्ष्य प्राप्त करने की विधि
*मानसिक सीमाओं को लांघकर लक्ष्य प्राप्त करने की विधि*

हमारे जीवन के सभी लक्ष्यों की ओर हमारी प्रगति की गति केवल हमारी ही मानसिक सीमाएं धीमा करती हैं। कभी कभी ये मानसिक सीमाएं अत्यन्त ही बाधक बनकर हमारी गति को पूरा ही रोक देती हैं। इन मानसिक सीमाओं से हमें ऊपर उठना अति आवश्यक है। मानसिक सीमाओं से ऊपर उठना एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कौशल है जिससे हमें स्वयं को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। एक सीमा या बाधा एक स्व-निर्मित विचार है जो हमारे जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने की दृढ़ संकल्प की शक्ति को कम करता है । उदाहरण के लिए यदि मेरा किसी प्रियजन, जैसे माता-पिता या भाई-बहन या जीवन साथी के साथ रिश्ता टूटा हुआ है। इससे मेरे मन में यह विश्वास पैदा होता है कि मैं एक रिश्ते को अच्छी तरह से संभालने में असफल रहा हूं। इस विश्वास के परिणामस्वरूप मेरे अन्तर्मन में एक नकारात्मक धारणा प्रबल हो सकती है कि रिश्ता कोई भी हो, केवल दुख ही देता है। तब यही धारणा हमारे कर्म व्यवहार में प्रवाहित होने लगती है और जिन लोगों के हम करीब होते हैं उन्हें हम वह सकारात्मक ऊर्जा नहीं दे पाते जो उनके साथ बने हुए रिश्तों, मेलजोल को प्रगाढ़ बनाने के लिए आवश्यक होती है। फलतः ये विचारचारा और मानसिक अवधारणा हमारे बचे खुचे कुछ रिश्तों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करने लगती है।

कभी-कभी हमें यह भी नहीं पता होता है कि कोई व्यक्ति हमसे दूर क्यों हो रहा है जबकि उस व्यक्ति के प्रति हम वही व्यवहार करते हैं जिस व्यवहार की वह हमसे उम्मीद करता है। वास्तविकता यही है कि हमारा मन गलत मानसिक धारणाओं का बंदी बना हुआ होने के कारण लोगों के साथ उनकी उम्मीदों के अनुरूप ही व्यवहार करने के बावजूद लोग नकारात्मक रूप से प्रभावित होते रहते हैं। हमारी गलत धारणाओं की ऊर्जा लगातार दूसरे व्यक्ति तक जाकर उसे सूक्ष्म रूप से चोटिल करती रहती है जिससे सामने वाला व्यक्ति हमसे अनजाने में ही अलग होने लगता है। परिणामस्वरूप हम अपने मन में सीमित विचारों की अनन्त श्रृंखला निर्मित करते जाते हैं जो हमारे अवचेतन में की गहराइयों तक जाकर स्थाई रूप से बैठ जाती है। इन्हीं सीमित और नकारात्मक विचारों के प्रभाववश हम अपनी धारणाओं के चंगुल में जकड़ते ही जाते हैं। इस जकड़न से बाहर निकलना हमारे लिए कल्याणकारी होते हुए भी हम इससे बाहर निकलने में स्वयं को असुरक्षित महसूस करने के कारण निकल नहीं पाते और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल होकर साधारण जीवन जीकर मर जाते हैं।

एक और उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करेंगे। मान लीजिए किसी विद्यार्थी ने एक साल में स्कूल की परीक्षा में खराब प्रदर्शन किया है। नतीजतन, मैंने अपने दिमाग में मानसिक बाधाओं की एक श्रृंखला बनाई है जैसे - मैं इतना तेज या प्रतिस्पर्धी नहीं हूं या मैं एक नर्वस परीक्षा देने वाला हूं या मैं इतना बुद्धिमान नहीं हूं या मैं सफल नहीं हो सकता। ऐसी मानसिक बाधाएं भी इतनी प्रबल होती हैं जो हमारे मन और व्यक्तित्व पर कठोर प्रहार करने वाले हथौड़े की तरह होती हैं। जिन मानसिक बाधाओं की श्रृंखला हमने बनाई है, वे भविष्य में घटने वाली हर घटना पर अपना नकारात्मक प्रभाव डालने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। उसके पश्चात हम पुनः मानसिक बाधाओं की अगली श्रृंखला बनाने लग जाते हैं। यह आदत हमें अवसाद, डिप्रेशन और मनोरोगों की उन अंधेरी गलियों में भटकने को मजबूर कर देती है जहां से निकल पाना असम्भव सा हो जाता है।

इसलिए अपनी अंतर्चेतना को टटोलना आवश्यक है। जैसी चेतना होगी वैसे ही मन में विचार उत्पन्न होंगे, जैसे विचार होंगे वैसे कर्म होंगे, जैसे कर्म होंगे वैसा ही भाग्य बनेगा। यदि चेतना के धरातल पर हम कुछ विशेषता उजागर कर पाते हैं तो उसका प्रभाव मन के विचारों पर पड़ता है और वही प्रभाव हमारे कर्मों को भी विशेषता की ऊंचाइयों पर लेकर जाता है।

चेतना को प्रखर करने के लिए अथवा उसका संशोधन करने के लिए स्वयं को ऐसे ऐसे आत्म सुझाव देने चाहिए जो हमारी मानसिक बाधाओं को तोड़ते हुए हमें सफलता की ओर अग्रसर करे। स्वयं को स्वयं ही कहें कि मैं सदा विजयी हूं, मैं शक्तिशाली हूं, मेरा हर कर्म विश्व कल्याण के लिए है, मैं हर कार्य करने की क्षमता रखता हूं, मेरे लिए सबकुछ सरल है, चाहे कुछ भी हो जाए मुझे सफलता पाने से कोई रोक नहीं सकता। इस प्रकार के आत्म सुझाव निश्चित रूप से हमें हमारे द्वारा ही बनाई गई बाधाओं रूपी मानसिक सीमाओं को लांघकर सफलता की चोटी पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

*ॐ शांति*
© Bk mukesh modi