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ग्रहस्थ बनाम संन्यास
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सामान्यतया लोग गृहस्थ आश्रम की बहुत अधिक तारीफ इसलिए करते हैं, क्यों कि- यह प्रशंसनीय है।

कैसे?

यह मानव जाति तथा कुल के उद्विकास-रथ को आगे बढ़ाने का जैव-आध्यात्मिक (Bio Spiritual) मार्ग है।

यह यथार्थ संन्यास में प्रविष्ट होने के लिए एक अनिवार्य और अनुभूति-परक प्रशिक्षण-काल‌ है।

व्याख्या:

गृहस्थ आश्रम में हम उत्कृष्ट विवाह द्वारा उत्तम संतति समाज को देकर, और उसे सर्वांगीण शिक्षा द्वारा मानव-चेतना के उर्ध्वगमन की ओर अनुप्रेरित और प्रशिक्षित करते हैं।

गृहस्थ आश्रम कर्म-निर्जरा का रणक्षेत्र है।

✓यदि गृहस्थ-जीवन को सामान्य चेतना में जिया जाए, तो आपके कर्म कुछ कटेंगे, कुछ नए बनेंगे। इसप्रकार आप संन्यास आश्रम के योग्य नहीं बन सकेंगे।

✓यदि गृहस्थ-जीवन हम प्रतिक्रिया-विहीन सजगता अर्थात् (Choice Less Awareness) के साथ जियें, तो इससे हमारी कर्म-निर्जरा होती है। जिससे हमारी‌ चेतना संन्यास आश्रम के अनुरूप विकसित होती है।

✓यदि धर्म, या देशसेवा के नाम पर गृहस्थाश्रम की अवहेलना की जाती है, तो यह आपकी चेतना के उन्नयन में बाधा उत्पन्न करती है। इस प्रकार आपकी उद्विकास-यात्रा रुक जाती है। आपकी चेतना अधोगमन करने लगती है।

आगे आप पूछते हैं:

लोग सन्यास आश्रम को अपनाने से डरते हैं, क्यों?

सभी लोग सन्यास आश्रम को अपनाने से नहीं डरते हैं,, किन्तु जो डरते हैं वे विभिन्न कारणों से डरते‌ हैं।

जो मुट्ठी भर लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हैं, ये वह लोग हैं, जिन्होंने अपने पूर्व जन्मों में गार्हस्थ्य-धर्म का पालन सजगता से करते हुए अपने कर्मों की निर्जरा कर चुके होते हैं।

अधिकांश लोग जो संन्यास आश्रम से डरते हैं, उसके पीछे निम्न प्रमुख कारण हो सकते हैं:

समझ की कमी और निजस्वार्थ के कारण समाज में संन्यास आश्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है।

कर्म-भार से लदा मन संन्यास हेतु अनिवार्य वैराग्य के लिए तैयार नहीं होता। उससे सब भोग छूट जाएंगे, वह इस बात से डरता है।

समाज में फ़र्जी संन्यासी खूब डोलते फिर रहे हैं। अतः विवेकशील व्यक्ति संन्यास का बाह्य प्रदर्शन करने में डरते हैं।

वर्तमान काल में गृहस्थाश्रम और संन्यास आश्रम के समन्वय द्वारा चेतना की उद्विकास-यात्रा में तीव्र गति लाई जा सकती‌ है, जिसे ओशो (OSHO) ने नव-सन्यास‌ का नाम दिया है।

नवसन्यास का अर्थ हुआ निम्नप्रकार की जीवनशैली:

देश-गत : जहां, जो भी कर रहे हैं, वह निर्लिप्त भगव से करते रहें और ईश-स्मरण में लीन रहें।

काल-गत : कभी कभी किसी कालखण्ड के लिए दुनियावी हलचल से अपने को अलग करते हुए एकांत-सेवन करें।

ध्यान रखें।

यथार्थ संन्यास का भौतिक त्याग से कोई लेना-देना नहीं है। संसार का मानसिक त्याग ही यथार्थ संन्यास है।

सावधान !

अधिकांश संन्यासी हमें ऐसे मिलेंगे जो वैराग्य के कारण नहीं बल्कि जीवन के संघर्षों से डरकर तथा मूढ़जन की अंधश्रद्धा के सम्मोहन में आकर संन्यासी के चोले में लोगों को मूर्ख बनाते घूम रहे हैं अथवा अपनी दूकान (आश्रम) खोले बैठें ‌ हैं।

उनसे बचिएगा। प्रभावित मत हो जाइएगा। अन्यथा आप अपनी आध्यात्मिक यात्रा में भटक जाएंगे।

यथार्थ संन्यासी अनजाना-अन्चीन्हा जीवन जीता‌ है।

उसके लबों पर एक ही गीत होता है:

मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे !