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परिवर्तन:–संसार का नियम
“परिवर्तन संसार का नियम है।”शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपने जीवन में इस वाक्य के बारे में एक बार भी न सुना हो।सुनने में तो बस एक वाक्य जैसा ही लगता है लेकिन इस वाक्य का अर्थ बहुत गहरा है।आज जो समय हमारे जीवन में चल रहा है वो कल नही होगा और न ही कल जो समय आएगा वो समय फिर कभी लौट के आएगा।मानसिक और शारीरिक रूप में हर दिन हमारे अंदर कुछ न कुछ बदलाव होते रहते है।भले ही वो बदलाव हमें हर दिन महसूस नहीं होता फिर भी वो बदलाव की प्रक्रिया चलती रहती है।

एक छोटा सा बच्चा जो बात बात पर रोता रहता है वो जब मानसिक और शारीरिक स्थर पर परिपक्व होने लगता है तब बात बात पर रोने के बदले परिस्थितियों को सामना करने की क्षमता बढ़ाने लगता है।यह परिवर्तन का एक छोटा सा उदाहरण है।

जहां पर जंगल था वहां पर कारखाने बन जाती हैं,जिस नदी का पानी निर्मल था वो दूषित हो जाता है,जो मन सरलता से परिपूर्ण था वो छल–कपट सिख जाता है।

परिवर्तन की प्रक्रिया आंतरिक तौर पर एक बड़ी ही जटिल और सुंदर प्रक्रिया होती है मानो जैसे कोई मूर्ति पर की गई सुंदर कारीगरी।चेतना का विकास के साथ साथ सवालें भी विकसित होती जाति हैं और खोजते खोजते उन सवालों के जवाब भी मिलते जाते हैं। कुछ सवाल क्या है कभी ये पता भी नही चलता और कभी कभी जब जवाब मिलती है तो आँखें भर भी जाते हैं।बहुत कम पल होते है जीवन में जब ऐसे अनुभवों का रस प्राप्त होता है। शायद हर प्राणी का जन्म इसी रसपान के लिए होता है।

अपने अंदर में हुए शुभ परिवर्तनों की प्रक्रिया का साक्षी बनने में जो आनंद लाभ होता है वो न ही वर्णन किया जा सकता है और न ही किसी और को समझाया जा सकता है।

इस प्रेमपूर्ण प्रक्रिया को जानने के लिए अपने अंदर झाकना पड़ता है,ये प्रक्रिया प्रेम मांगती है खुद के लिए।परिवर्तन की प्रक्रिया शुभ भी हो सकती है और अशुभ भी हो सकती है।ये बात निर्भर करता है की हम खुदसे प्रेम करते भी हैं की नहीं।अगर एक व्यक्ति खुदसे प्रेम करता है तो अपने गलतियों को पकड़ने में गलती नही करना चाहता और बहुत ही शतर्क हो जाता है की जो गलती उसने पहले की हे वो दुबारा उसे न दोहराएं।
© Chayanika Dani