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सोच


भारती बहुत ही शालीन और सरल स्वभाव की लड़की थी। उसकी मां के बचपन में ही गुज़र जाने के कारण परिवार में मात्र दो हो जन थे, एक वो और उसके पिता।

बचपन से ही उसने घर का सारा काम और अपने पिता की देखभाल अकेले ही की थी।

उसके पिता एक मध्यम वर्गीय नौकरीपेशा आदमी थे। आय ज़्यादा नहीं थी, परंतु उन्होंने भारती की परवरिश में कभी किसी बात की कमी नहीं रखी थी।

अब भारती की आयु लगभग 25 वर्ष की हो चुकी थी और वो घर देखने के साथ-साथ एक पार्ट–टाइम नौकरी भी कर रही थी ताकि अपने पिता की आर्थिक मदद भी कर सके जिसकी वो हमेशा से चाह रखती थी।

उसके पिता अपनी उम्र की ढलान पर थे, तो ज़ाहिर तौर पर उन्हें अपनी बिटिया के विवाह की चिंता भी थी।

उधर भारती के चाचा, जो उनके शहर में ही अलग रहते थे, जब भी मिलने आते थे तब–तब अपनी कटु बोली से उसके पिता को एक ही दकियानूसी बात का ताना दिया करते थे कि "भैया कब तक बिटिया को घर में रखेंगे। उसका ब्याह तो अभी तक कराया नहीं ऊपर से नौकरी और करवा रहे हैं। कहा था आपसे कि समय रहते दूसरी शादी कर लीजिए। आज एक लड़का होता है तो बुढ़ापे का आपका सहारा तो बनता।"

भारती के चाचा उनके पूरे घमंड के साथ अपने रिश्तेदारों के आगे बस यही बात करते थे कि "हमारे तो दो बेटे हैं, दोनों नौकरीपेशा हैं। एक का ब्याह भी कर दिया है और दूसरा जल्द ही घर बसाने वाला है। फिर हम मियां–बीवी दोनों ठाठ से रहेंगे।" उन्हें इस बात का बहुत ग़ुरूर था कि उनके दो बेटे हैं दोनों ही बहुत ही सुशील हैं और निश्चित ही बुढ़ापे में उनका सहारा बनेंगे।

वे बार–बार यह सब अपने बड़े भाई को यह एहसास दिलाने के लिए कहते थे कि वह एक बेटी के पिता है और बेटियां तो पराया धन होती है। उनके सहारे जीवन नहीं काटा जा सकता।

भारती को उसके चाचा की यह सब बातें बहुत खटकती थीं। वह हर प्रयास करके अपने पिता का सर हमेशा ऊंचा रखना चाहती थी।

लेकिन पिता तो पिता होता है। एक दिन उसके पिता एक लड़के की तस्वीर दिखाते हुए भारती से बोले "बेटी मैंने तेरे लिए एक रिश्ता ढूंढा है। लड़का बहुत ही सीधा और अच्छे परिवार का है। घर–बार सब बहुत ही बढ़िया हैं।कमाता भी अच्छा है। मैं चाहता हूं कि तू इस बारे में सोच ले ताकि मैं लड़के वालों को बुलवाकर आगे की बात कर सकूं।

भारती अपने पिता को उनकी इस उमर में अकेला छोड़ कर ब्याह करना तो नहीं चाहती थी लेकिन अपने पिता को मना भी न कर सकी। उसने अपने पिता से कहा "बाबा आप जैसा ठीक समझें वैसा कीजिए। मुझे आपकी हर बात मंज़ूर है।"

जब भारती की उस लड़के से मुलाकात हुई तो उसने उस लड़के से कहा कि मैं शादी से पहले आपसे कुछ बातें साझा करनी हैं। मैं शादी के बाद भी अपनी नौकरी चालू रखना चाहती हूं ताकि मैं अपने पिता को इस उमर में किसी भी प्रकार से दूसरों के ऊपर मोहताज न होने दूं। उस लड़के और उसके घरवालों ने उसकी इस नेक इच्छा को आदर से स्वीकार किया।

शादी की तारीख़ तय होने पर भारती के पिता अपने छोटे भाई के घर न्योता देने पहुंचे तो उन्हें पता चला की वे अब किसी वृद्धाश्रम में रहते हैं। उन्हें यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ।

वे किसी तरह उनका पता लगाकर उस आश्रम पहुंचे। तब उनके भाई ने उन्हें बताया "भैया मैं बड़े अभिमान से आप को नीचा दिखाने के लिए जिस ऐंठ में रहता था कि मेरे तो दो–दो बेटे हैं और बुढ़ापे में वे हम पति-पत्नी का सहारा बनेंगे। उन बेटों ने मेरा सारा भ्रम तोड़ दिया। दूसरे बेटे का ब्याह होते ही दोनों ने घर को दो टुकड़ों में बांट दिया और हमें घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया।"

मैं हमेशा आपसे कहता था, कहता क्या ताना ही देता था कि आपको दूसरी शादी कर लेनी चाहिए थी ताकि आपके भी अगर एक बेटा हो जाता तो आगे चलकर आपका सहारा बनता।

लेकिन मैं ग़लत था। हर लिहाज़ से सरासर ग़लत था। आज मैं भारती को देखता हूं तो मुझे उस पर गर्व होता है और अपने लिए पछतावा होता है कि मुझे ईश्वर ने दो-दो बेटे दिए एक भारती जैसी बेटी क्यों नहीं दी। जो उसकी तरह इस उमर में मेरा ध्यान रखती और मेरे बेटों की तरह मुझे बुढ़ापे में बेसहारा तो बिलकुल भी न छोड़ती। मेरे साथ–साथ मेरे जैसी सोच रखने वाले समाज के उन लोगों के भी इस भ्रम तोड़ती कि "बुढ़ापे में बेटा ही बाप का सहारा होता है।"

© kajal