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परचुन की दुकान का फिलाॅसफर
कायनात कह लिजीए या Universe कह लिजीए... उसकी एक विशेषता है .. वह गाहे-बगाहे मानों हमें सरप्राइज देने का शौक रखता है।

आपके सामने कोई ऐसी हस्ती या परिस्थिति ला खड़ा कर देता है कि अचानक आपकी सारी धारणाएं, सारे theories मानो ताश के पत्तों के महल के समान क्षण भर में ढेर हो जाते हैं। Clean bold !

अपील की कोई गुंजाइश ही नहीं ।
मानो कह रहा हो " पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त" ! अभी मेरे कई आयाम देखने है समझने है ।

और एक दम से नजरिया पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है... शायद यही तरीका होगा कायनात का, सबक सिखाने का, हमारे उलझनों को , दुविधाओं को सुलझाने का, संकीर्णता से पूर्णता की ओर ले जाने का...

मेरे पिछले लेख 'होड़' में मैं कुछ ऐसे लोगों के बारे में लिख चुका हूं जिन्हें अपने सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं देता, उनका ऐसा मानना है कि यह विश्व उन्हीं के लिए बनाया गया है और बाकी सभी लोग उनके उपयोग की वस्तुएं मात्र है । किसी भी तरह उनका हेतु साध्य होना है सामने वाला जिये या मरे इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। तो मेरी यही धारणा बन चुकी थी कि आजकल अधिकांश लोग ऐसे ही है। बस स्वार्थी और आत्मकेंद्रित ! कुछ दुविधा भी थी और सवाल भी..कि आखिर इसका हल क्या है ?

और नियती ने मेरे सामने सागर को ला खड़ा किया , मानो आंखों ही आंखों में पुंछ रही हो 'इसका क्या जबाब है?'

ओह ! मेरे पास कोई जवाब नहीं था समर्पण के सिवाय !

एक साधारण परचुन की दुकान में मानों कोई फिलाॅसफर हो एकदम शांत, स्थिर, सजग चैतन्य... चारों ओर से मांगों की बौछारों के बीच एक सौम्य सी मुस्कान उसके अधरो पर बनी रही.. कोई झुंझलाहट, कोई शिकन तक का नामोनिशान नहीं.. अच्छा जो मांगा जा रहा है सिलसिलेवार तरीके से दे भी रहा है सौम्य मुस्कान में किंचित मात्र भी फर्क नहीं
उस भीड़ में मेरी तो यही इच्छा है कि जल्द से जल्द सामान लेकर चलता बनूं ।

अच्छा , इस भीड़ में एकाधे वो कलाकार भी पहुंच ही गए है जिन्हें दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं है बस उनका सामान उन्हें मिल जाए पर सागर उन्हें इस सलीके से संबोधित करता है वह सिर्फ अनुभव करने की बात है शब्दों में कहना असंभव है।

मालूम हुआ कि वह दुकान में चाचाजी का साथ देता है चाचाजी आ रहे हैं तब तक वह अकेला ही मोर्चा संभाले हुए हैं उसको उस तत्परता से परिस्थिति को संभालते हुए देखकर मुझे बड़ी तीव्रता से एक ही व्यक्तिमत्व की याद आई वह है - ' सचिन तेंदुलकर' ! विश्व का कितना भी बड़ा, तेज, खतरनाक गेंदबाज क्यों न हो, सचिन के चेहरे पर न कोई शिकन उभरती है न भाव भंगिमा में कोई अंतर ही आता है 'बाडी लैंग्वेज में भी कोई असर नही , एकदम शांत, स्थिर, सहज और सजग..! पर गेंद का जवाब भी उतनी ही कुशलता से, बल्ले से दे दिया जाता है।
यह सब वर्णन ‌की नहीं अनुभव ‌करने की बात है।

श्रीकृष्ण जी ने श्रीमद्भगवद्गीता गीता में इन्हीं गुणों से युक्त व्यक्तिमत्व को ' स्थितप्रज्ञ ' कहा है बिल्कुल वही 'शब्द' मुझे सागर को देख कर स्मरण हो आया ।

श्रीमती जी सामान लेने में व्यस्त हैं और मैं सागर से प्रभावित हुआ जा रहा हूं कुछ ही देर में श्रीमती जी उसकी 'बुवा' हो जाती है और मैं फुफाजी ! सामान देते - देते वह एक इलायची मुझे भेंट कर देता है। चाचाजी भी अब दुकान में आ चुके हैं । हमारी खरीदारी हो चुकी है । सागर हमें कुछ यूं बिदा करता है मानों कोई रिश्तेदारों को बिदा कर रहा हो।

कोई पंद्रह - बीस मिनट का संग रहा होगा पर उतनी ही देर में वह सागर नाम का व्यक्तित्व अपनी छाप छोड़ जाता है।

कायनात मानों धीमें से मेरे कान में सरगोशी करती है" कहिए जनाब ! मिल गया आपको अपने सवालों का जवाब ? "

एक गहरी मुस्कान मेरे अधरो पर आ जाती है हूं, श्रीमती जी सशंक नजरों से मेरी ओर देखती है । इसके पहले कि कोई प्रतिक्रिया आए मैं मुस्कान समेट गंभीर मुद्रा धारण कर लेता हूं । हम घर की ओर चल पड़ते हैं ।

- स्वरचित / १८.०३.२०२१

© ओम 'साई '
© aum 'sai'