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कालासुर व शिव जी
सन "1620" की बात है ,
सुबह के लगभग 6:00 बजे थे और अभी भी चारों ओर अंधकार था । कहीं-कहीं हल्की-हल्की हवाएं बह रही थी और गौरैया की चह-चहाने की आवाज आ रही थी, हमारा गांव हमारे वीर महाराज 'अग्रसेन' के कारण मुगलों के अधीन नहीं था और मैं उनका सेनापति था।

आज सोमवार है और हर बार या कहे( यह मेरी बचपन की आदत थी) कि मैं हर सोमवार महादेव के मंदिर जा उनकी आराधना करता जो हमारे गांव के ठीक पीछे वाले जंगल में था जिसे गांव के लोग "भैरव जंगल" के नाम से पुकारते थे ।

"बेटा राघव!
बापू नहा कर आ गए हैं ।"
"जा जल्दी नहा ले और मंदिर अब जाऔ।"
मां ये बोले तब तक मैं वहां पहुंच गया और कुछ समय बाद पीले वस्त्र और धोती पहन चल पड़ा।

मेरे घर से मंदिर लगभग 4.5 किलोमीटर दूर था तो मैं थोड़ा-सा थोड़ा दौड़ता, उछलता और फुर्ती से किसी तरह 7:00 बजे मंदिर पहुंच गया। घनश्याम पंडित जी जो हमारे गांव में आदरणीय है वह तुरंत अभी पूजा से उठे थे और मैं उन्हें प्रणाम कर एकांत में ध्यान मग्न हो गया। {परम शांति ना कोई आवाज है, मुर्गों के मरने की करुण रुदन नहीं , कोई कष्ट नहीं है काली चाची तीखी आवाज नहीं और कोई कुत्तों की भौंकने की आवाज तक नहीं आ रही थी ।}
एक अल्भय शांति जो केवल मंदिर के घंटी से ही टूटती पर आज कोई नहीं आया था उतना जल्दी तो नहीं आया था ।
"ओम ......ओम........ओम ......ओम .......
.....ओम...."
" राघव... राघव.... राघव... राघव... राघव।मदद करो मदद करो ।"
एक तीखी चिख मेरे कान पर पड़ी और बार-बार गूंजती रही वह आवाज इतनी रुदन भरी और दुख से ग्रसित थी कि मेरा पूरा शरीर शिथील हो गया। मै अपने आंखें नहीं खोल पा रहा माथा इतना गर्म हो गया था कि पसीना निकलने लगा कोशिश किया आंखें खोलो और तुरंत उठ मदद के लिए जाऊं उस ओर जहां से आवाज आ रही थी पर मैं असमर्थ था। मैंने अपने मन में देखा कि कोई भयंकर दानव जिसका लाल आंख ,खून से लथपथ मुंह, मुर्गों के शीश की माला ,नागिन से पूछ और जहरीले जीव और उसके हाथ में तलवार था जो महादेव के शिवलिंग को खंडित करने वाला था। जिसमें स्वयं महादेव विराजमान थे और इसी के साथ मेरी आंखें खुल गई ।

मैं अपने आप को अपने घर में पाया और मेरी मां मेरे बगल में बैठ माथे को सहला रही थी और पिताजी वैद्य जी से मेरे स्वास्थ्य के बारे में बात कर रहे थे ।मां से पूछने पर पता चला कि मैं जब योग में था तो मंदिर में महादेव महादेव मैं आपको बचाऊंगा ऐसा चिल्ला के कह रहा था। ऐसे ही रात हो गई और मैं अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था कि मेरे कमरे के छिटकनी अपने आप ही खुल गई और एक सुंदर युवती मेरे पास आई और मेरे कान में कुछ ऐसा मंत्र बोली कि मैं सो गया।
मैंने अपने आप को पानी के नीचे (बोले तो गहरे समंदर में पाया) जहां कोई देव मनुष्य मुझसे मिल और एक संदेश देने आया था-" राघव! तुम्हीं अब केलाश से महादेव को बचा सकते हो ।
"कालासुर यह कौन है? और आप कौन?"
"मैं देवदूत पवन हूं, मैने हीं समंदर की यक्षिणी शकुंतला से कहा था कि वह तुम्हें यहां ले आए। करोड़ों वर्ष पहले रावण का भाई कुंभकरण जब जीवित था तो उसने अपने तन के मेल से कालासुर नामक राक्षस को जीवित किया और उसे अपने खून से रसपान करा महादेव की तपस्या करने की आज्ञा दी ।कालासुर पूरे लगन के साथ तपस्या किया और उसकी तपस्या इतनी प्रबल थी कि स्वयं कैलाश पिघलने लगा और ना चाहते हुए शिवजी उसके समक्ष प्रकट हुए और उसे वरदान मांगने का आग्रह किया।

कालासुर ने वरदान मांगा कि -"मैं चिर निंद्रा में चला जाऊं और तब उठो जब लोग एक दूसरे के विरुद्ध, कपटी और भक्तिभाव इस संसार से नष्ट हो जाए और लोग एक दूसरे से झूठ बोले ना आधार हो उसे समय मैं जागूं और मेरा प्रकोप जब आप पर पड़े तब मैं जागूं ।"शिवजी उसके प्रकोप के बाद को नहीं सुन पाए थे और वह वरदान दे दिए ।

और अब कलयुग का समय आ चुका है और कालासुर जाग चुका है और कैलाश शिवलिंग की ओर बढ़ रहा राघव तुम भैरव जंगल के मंदिर जाओ वह भी ब्रह्म मुहूर्त में और वहां तुम्हें सब पता चल जाएगा। मैं तुरंत नेत्र खोला तो अभी मैं अपने घर में था और अभी लगभग घड़ी में सुबह का4:00 बज रहे थे।
मैं तुरंत मंदिर की ओर गया ,शमंदिर के बगल में जो कुआं था वह नीले रंग से जगमग कर रहा था जैसे कोई मणी हो पास जाकर देखा तो हैरान हो गया कि वह कुएं में जो पानी
लबालब भरा रहता था वह एक सीढी के रूप में परिवर्तित हो गया था और मैं तुरंत ही कुएं के तल में पहुंच गया।

उसके माध्यम से मैंने अपने आप को कैलाश पर्वत पर पाया जहां नंदी की बहुत घायल हालत में एक कोने में कैलाश शिवलिंग लिए छुपे हुए थे और चारों ओर पूरा उथल-पुथल मचा हुआ था । कुछ देवगन कालासुर से वीरता के साथ लड़ रहे थे पर उसकी मायावी शक्ति के सामने कोई नहीं टिक पा रहा था। मैं दौड़कर नंदी जी के पास गया और बोला - नंदी देव यह क्या हो रहा है ? राघव! अभी यह उचित समय नहीं है जानने का बस तुम इस शिवलिंग को लो और यहां से चले जाओ।"
उन्होंने मुझे शिवलिंग दिया और तुरंत ही गायब हो गए ।तभी विष्णु देव प्रकट होते हुए और कहते हैं -
"राघव! यह जो जागृत लिंग है इसे हमें कालासुर से बचाना है वरना इसके खंडित होते ही सारा संसार या कहीं समस्त ब्रह्मांड नष्ट हो जाएगा ।
मैं तुम्हें कुछ देवी शक्तियां प्रदान कर रहा तुम उनका उपयोग कर यहां से जा सकते हो।
" ओम.... शक्ति प्रदान हो...."
अचानक....
एक गर्जना हुई और कालासुर अपने तलवार से विष्णु जी के ऊपर हमला कर दिया और उसे तलवार से बचने के लिए स्वयं विष्णु जी गायब हो गए और मैं कुछ प्राप्त शक्तियों से कुछ क्षणों के लिए अदृश्य हो गया। मै कैलाश में कई दिनों तक फंसा रहा क्योंकि कालासुर की मायावी शक्ति चारों ओर फैली हुई थी। एक दिन जब मैं गुप्त स्थान पर आराम कर रहा था तभी लिंग चमकने लगा जब मैं उसे छुआ तो मुझे संदेश मिला कि शिवजी मेरे गांव के भैरव जंगल में विराजमान होना चाहते हैं और इसका शुभ दिन चार दिन बाद था।

तो मैं अब किसी तरह वहां से निकलने में कामयाब हो सका परंतु कालासुर की काली शक्तियों का नजर मुझ पर पड़ गया और वह राक्षस तुरंत ही मेरे पीछे पड़ गया। मैं भागा और भागा और तेज भागा। मैंने अपने आप को गिद्ध के रूप में बदल दिया और आसमान की और उड़ने लगा तो कालासुर एक राक्षसी चिल मे बदल मेरे ओर लग गया ।उसने मुझे खूब दौड़ाया। मैं ताल नीचे गया परंतु वह मुझे छोड़ा नहीं मेरा पीछा करते रहा ।
मैं उड़ते उड़ते इंद्रलोक से होकर गया-
'छन... छना... नाना...छान.... मोरे प्यारे ...प्रियतम.... इंद्रायणी, अप्सराय, यक्षिणी सब नृत्य कर सुंदर वस्त्र और आकर्षित अपने तन मन और चाल से इंद्रदेव और आदि देवगन का मनोरंजन कर रही थी। इसे देख कालासुर थोड़ी देर के लिए भटक गया और एक सुंदर देव बन वहां मनोरंजन लेने लगा ।लगभग ठीक 1 घंटे बाद जब उसे होश आया तो वह फिर मेरे पीछे लग गया अपनी काली शक्तियों के माध्यम से परंतु तब तक मैं अपने धरती गृह के करीब था उसने एक तेज खड़ग प्रहार मुझ पर किया जो मेरे टुकड़े कर देने में समर्थ था लेकिन शिवलिंग ने एक सुरक्षा कवच मेरे चारों ओर बना दिया था सो मैं बच गया और इस तरह मैं अपने गांव आ गया ।

अभी चारों ओर घोर अंधकार था और यह चौथे दिन की शुरुआत थी यानी मैं पिछले तीन दिनों से केवल भाग रहा था और कई दिनो से ना खाया ना पिया था ।मैं शिव स्त्रोतम बोलते हुए भैरव जंगल की ओर बढ़ने लगा , जंगल के पेड़ पौधे, मंदिर की घंटी सब बजने लगी और तभी कुएं में एक तेज नीली रोशनी हुई और मैं उसके अंदर (बोलते हुए जय शिव जी) तो कुएं के तल में गया ।

"अरे!
यह क्या इतना बड़ा मंदिर।
वह हमारे गांव में धरती के इतने नीचे आखिर कैसे।"
तभी मेरे पीछे से मां पार्वती ,गणेश जी ,नंदी विष्णु जी और नारद मुनि पधारे। उन्होंने मुझे शिवलिंग को मंदिर के गर्भ गिरी में स्थापित करने को कहा जो बहुत सुंदर और क्या खूब उसकी बनावट थी ,उस मंदिर का नाम "शंभू द्वारा" पड गया। सभी देवगन और मैं भी यही सोच रहा था कि कालासुर सीधे हम पर हमला करेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं और कई देवगन लगभग एक सप्ताह मंदिर के रक्षा के लिए रहे परंतु अभी तक कालासुर ने कुछ नहीं किया था।
पवन देवदूत एक दिन सोचते हैं कि राघव अब जैसे कि हम धरती लोग आ गए तो चलो थोड़ा बाहर निकले और धरती के लोगों से मिले ।पर मैं ऐसा नहीं चाहता था (मेरी अंतर्मन बार-बार यह मना कर रही थी) पर पवन देव मेरा सुनने को तैयार कहां थे वह बोलते ही निकल गये ।

"राघव! बाहर मत....
पवन देव चिल्लाने लगे और फिर सब शांत हो गया ।जैसे कुछ हुआ ही ना हो। लेकिन मुझे यह तो पता चल गया की कालासुर धरती पर आ चुका है और अभी शिवजी ध्यान मग्न थे तो उन्हें कष्ट देना उचित नहीं था कालासुर देवगनो को धरती के ऊपर आने को विवश करने लगा आम मनुष्य को वह तंग करता ,पेड़ पौधों को नष्ट करता ,नभचर को मार करके उनको खाता सबको कष्ट देने लगा ।यहां तक कि हमारे गांव के जो महाराज अग्रसेन थे वह उनके वशीभूत हो गए और प्राजों पर अत्याचार करने लगे ।

एक दिन जब वह भैरव जंगल की ओर से जा रहा था कालासुर पंडित घनश्याम जी पर हमला बोल दिया और उनकी वही मृत्यु हो गई ।घनश्याम जी जोआदरणीय थे उनकी मृत्यु ने मुझे बहुत क्रोधित कर दिया मैं देवगणों से विनती करता की कालासुर का वध करें पर कोई आगे नहीं आता। पंडित घनश्याम की मृत्यु मुझे इतना क्रोधित कर दी कि मैं खुद उससे लड़ने चल दिया और इस तरह कालासुर की माया सफल हुई ।
जैसे ही मैं कुएं से बाहर निकाला काली माया मुझे और मेरे बदन को बाधने लगी और कालासुर मुझ पर बार-बार अत्याचार कर शिवलिंग का स्थान पूछ रहा था वह इतना शक्तिशाली था कि उसका एक प्रहर मानो मेरे तन को तोड़ देता ।

"हे भोले!
तेरे भक्त की हाल देख ,
त्राहिमाम त्राहिमाम,
कालासुर की तू चाल देख
खोल आंखें और ध्यानी रे!
भक्तों की तू वाणी रे ।
ओ शंभू !
फेला जो अंधकार है ,
अधर्म की देख सरकार है ,
लहू लहू है लोग हुए ,
जाग शंभू ,जाग शंभू
ओम .....नमः शिवाय ओम..... नमः शिवाय ओम ....नमः शिवाय "

अचानक कुएं की तेज रोशनी हुई और कालभैरव के रूप में महादेव कालासुर कि सारी माया को काटकर उसकी इस काली माया को निगलकर ,उसके ओर बढने लगे कालासुर उनके इस भयंकर रूप से इतना ज्यादा डर गया कि वह भागने लगा। महादेव ने अपने त्रिशूल से उसके शिश को काट दिया परंतु वह नहीं मारा काल भैरव अपने महान लीला दिखा रहे थे और कालासुर आशीर्वाद के कारण मर नहीं रहा था।

विष्णु जी ने अपना शंखनाथ किया और संदेश दिया कि-
" हे प्रभु !
कलाशुर का वध होना आपके हाथों असंभव है क्योंकि उसे अपने ही वरदान दिया था जीवन का ।तो ,उसकी मृत्यु केवल राघव से ही हो सकती है क्योंकि राघव ही ऐसा एकमात्र मनुष्य है जो कैलाश शिवलिंग को अपने हाथों से उठाया और शिव द्वार में उसे स्थापित किया ।"
कालभैरव तुरंत मेरी ओर आए और मुझे अपना खड़ग दे दिया और आदेश दिया कि कालासुर का वध किया जाए ।मैं कालासुर का पीछा करते हुए करते हुए उसके शीश को कलम कर दिया और इसके साथ उसकी माया और उसके अस्तित्व का अंत हो गया। चारों ओर अब शांति थी और महादेव ने सभी आम लोगों को माया से हटा दिया ।

महीनो बाद में महाराज अग्रसेन को इस बारे में बताता हूं तो वह तुरंत मंदिर की खुदवाई करवाते हैं और लगभग 7 सालों बाद वह भव्य मंदिर हमारे समक्ष होता है जिसकी बनावट चित्रकार शिल्पकार मानो स्वयं शिल्पकार नविश्वकर्मा ने किया था ।

"राघव ....राघव!
उठो बेटा स्कूल हीं जाना है .।
"क्या ....क्या...
यह मात्र एक स्वप्न था।"

ओम नमः शिवाय


© श्रीहरि