किनसे सीखा मैंने, सादगी ज़िन्दगी की..
ना किसी से कोई बैर, ना किसी से थी शिकायत, आख़िर उन्होंने एक सादगी भरी ज़िन्दगी जो जी थी। उस ज़माने में शायद इसी को जीना कहते थे, जब हर रोज़ दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम ख़ुद के लिये और अपने परिवार के लिए कर पाना ही ज़िन्दगी में असल मायने रखता था।
वैसे तो अनेकों उदाहरण होंगे, मगर मैं अपने पूजनीय दादाजी के बारे में आज बताने जा रहा हूँ। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में उन्होंने दो बेटों और दो बेटियों को पाल पोसकर बड़ा किया, और बड़ी ही मेहनत से एक सरकारी स्कूल में बतौर अध्यापक के रूप में कार्य किया। स्कूल के अलावा खेत में काम करना उनकी आदत थी। घर में उनके बड़े भाई. यानी मेरे दूसरे दादा, उनके भी चार बच्चे, कुल मिलाकर हम सबको 20 लोगों का परिवार एक साथ रहता था। समय के साथ सब बड़े हुए और एक एक करके कोई शहर में बस गया, कोई नौकरी के सिलसिले में किसी और राज्य में चला गया । मेरे दादाजी भी एक दिन स्कूल से रिटायर होकर हमेशा के लिए घर पर रहने लगे। मगर एक बात उनकी ख़ास देखी मैंने, और वह थी उनके काम के प्रति लगन । शुरू में मेहनत मज़दूरी की, घर में किसी तरह से दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम किया, मेहनत करने, पढ़ लिख कर अध्यापक बने और ख़ुद को पूरे परिवार में खड़ा किया। मेरे पिताजी बताते है, कि दादाजी बहुत कड़क मिज़ाज के थे, और दूसरे बच्चों के अलावा उनके साथ तक सख़्ती के साथ पेश आते थे। शायद यही कारण था कि मेरे पिताजी के अंदर अनुशासन कूट कूट के भरा हुआ था, जिसके कारण वो मेहनत करके पढ़ाई के बाद एयर फ़ोर्स में एक ऑफिसर के ओहदे पर नियुक्त हुए। इससे पूरे गाँव में हमारे परिवार का विशेष स्थान बना।
मैंने अपने बचपन में दादाजी का बहुत प्यार पाया, मुझे वो कोई काम नहीं करने देते थे, खेतों में ले जाकर खूब घुमाते थे, और हर एक पौधे और सब्ज़ियों के बारे में जानकारी देते थे। बैलों को लगाकर हल से खेत जोतते हुए देख, मैं बहुत खुश होता था और कभी कभी मैं भी ख़ुद ही छोटे मोटे काम कर, उनकी कुछ मदत करने की कोशिश करता था। उन्होंने मुझे एक बात ख़ास सिखायी कि कर्मठ रहकर एक सादी ज़िन्दगी जीना ही सबके सरल और सुखमय जीवन का आधार है। मैंने उनकी कई बातें अपनायी। आज मैंने सब सुख सुविधाओं के साथ रहते हुए भी, सादा सरल जीवन जीना छोड़ा नहीं। इसका बहुत सारा श्रेय मेरे दादाजी और पिताजी को जाता है, दादीजी और माँ का प्यार और दुलार से बड़ा होने का भी एक अलग ही सुख मिला, मगर सादगी दादाजी से मिली…
© सुneel
वैसे तो अनेकों उदाहरण होंगे, मगर मैं अपने पूजनीय दादाजी के बारे में आज बताने जा रहा हूँ। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में उन्होंने दो बेटों और दो बेटियों को पाल पोसकर बड़ा किया, और बड़ी ही मेहनत से एक सरकारी स्कूल में बतौर अध्यापक के रूप में कार्य किया। स्कूल के अलावा खेत में काम करना उनकी आदत थी। घर में उनके बड़े भाई. यानी मेरे दूसरे दादा, उनके भी चार बच्चे, कुल मिलाकर हम सबको 20 लोगों का परिवार एक साथ रहता था। समय के साथ सब बड़े हुए और एक एक करके कोई शहर में बस गया, कोई नौकरी के सिलसिले में किसी और राज्य में चला गया । मेरे दादाजी भी एक दिन स्कूल से रिटायर होकर हमेशा के लिए घर पर रहने लगे। मगर एक बात उनकी ख़ास देखी मैंने, और वह थी उनके काम के प्रति लगन । शुरू में मेहनत मज़दूरी की, घर में किसी तरह से दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम किया, मेहनत करने, पढ़ लिख कर अध्यापक बने और ख़ुद को पूरे परिवार में खड़ा किया। मेरे पिताजी बताते है, कि दादाजी बहुत कड़क मिज़ाज के थे, और दूसरे बच्चों के अलावा उनके साथ तक सख़्ती के साथ पेश आते थे। शायद यही कारण था कि मेरे पिताजी के अंदर अनुशासन कूट कूट के भरा हुआ था, जिसके कारण वो मेहनत करके पढ़ाई के बाद एयर फ़ोर्स में एक ऑफिसर के ओहदे पर नियुक्त हुए। इससे पूरे गाँव में हमारे परिवार का विशेष स्थान बना।
मैंने अपने बचपन में दादाजी का बहुत प्यार पाया, मुझे वो कोई काम नहीं करने देते थे, खेतों में ले जाकर खूब घुमाते थे, और हर एक पौधे और सब्ज़ियों के बारे में जानकारी देते थे। बैलों को लगाकर हल से खेत जोतते हुए देख, मैं बहुत खुश होता था और कभी कभी मैं भी ख़ुद ही छोटे मोटे काम कर, उनकी कुछ मदत करने की कोशिश करता था। उन्होंने मुझे एक बात ख़ास सिखायी कि कर्मठ रहकर एक सादी ज़िन्दगी जीना ही सबके सरल और सुखमय जीवन का आधार है। मैंने उनकी कई बातें अपनायी। आज मैंने सब सुख सुविधाओं के साथ रहते हुए भी, सादा सरल जीवन जीना छोड़ा नहीं। इसका बहुत सारा श्रेय मेरे दादाजी और पिताजी को जाता है, दादीजी और माँ का प्यार और दुलार से बड़ा होने का भी एक अलग ही सुख मिला, मगर सादगी दादाजी से मिली…
© सुneel