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अमरबेल
वह पूरे घर को अपने आँचल में समेट लेना चाहती थी। पत्थर , मशीन, काँच, जाली ,तार; उसके लिए सब अपने ही थे।
सबसे लिपटती , सबको समाती , वो बढ़ती जाती।सर्दी, गर्मी , बरसात, पतझड़ आए और चले गए। उसकी रौनक दिनोंदिन दमकती रही।

एक दिन किसी ने कहा-“ यह बहुत बढ़ रही है। इसे आगे से काट दो या रस्सी से बाँध कर इसका रुख मोड़ दो।” एक जोड़ी आँखें आते-जाते रोज़ उससे यही कहतीं।वो मुरझाने लगी। उसकी लंबाई जहाँ थी, वहीं ठहर गई।बल ढीले पड़ने लगे। कई जतन किए पर उसे कुछ ना लगा।शनैः-शनैः हरियाली के बीच से पीलापन झांकने लगा।फर्श पर पड़े हुए पत्तों का ढेर बढ़ने लगा। नमी की जगह रूखापन आ गया।पकड़ ढीली पड़ गई। जुड़ाव ख़त्म हो गया। लोगों ने कहा- ना जाने किस ने ‛अमरबेल’ को लील लिया।