सड़क
सड़क आगे सपाट थी । चलती हुई, रुकती हुई, बाजार में तब्दील होती हुई, तो कहीं- कहीं ठहरी हुई सी।
सड़क ना होकर जैसे एक जिंदगी हो। कभी विरल तो कभी सघन।
कहीं - कहीं सड़क भीड़ में लुप्त हो जाती है।
तो कहीं - कहीं इतनी खाली , इतनी सपाट
कि ना आदमी ना जीव जंतु ।
इक्का-दुक्का फर्राटे भरते वाहन या ऊबता हुआ कोई आदमी , मानों यूं ही सड़क के अकेलेपन में अपना साथ ढूंढने आ गया हो।
सड़क के किनारे छिटपुट दुकानें भी हैं । कहीं-कहीं तो कतार दर कतार । दूर-दूर लेकिन क्रमबद्ध।
नाई की दुकान पर बैठे लोग , जो ग्राहक नहीं
है । चाय की दुकान और पान की गुमटी पर जमे हुए लोग।
वे थोड़ा और आगे चले । एक गुमटी। गुमटी पर बैठी औरत। वहीं टाइम पास करते कुछ लोग । अखबार पढ़ते , बतियाते सड़क पर आते जाते लोगों को देखते और कुछ सोचते से लोग।
वे ग्राहकों की मदद के लिए दुकानदार की तरफ से पेशकश करते। लगता है वे लोग भी किसी सन्नाटे से घबराकर दुकान पर आ गए हैं ।
वे लोग सन्नाटे से पीछा छुड़ाना चाहते हैं । चेहरे पर उदासी है, रिक्तता है, ऊब है या जीने का संतोष है कुछ स्पष्ट नहीं होता ।
वे भी तो सन्नाटे से घबराकर सड़क पर आए हैं। लेकिन औरों की तरह सड़क पर उनका कोई ख़ास नहीं है । वे थोड़ी देर चलते हैं। कहीं रुकते हैं दो-चार मिनट ।फिर चल देते हैं । और कुछ देर बाद घर में दाखिल हो जाते हैं। ऊब को बढ़ाते हुए तनहाई को गहराते हुए। सब कुछ खामोश समय की स्तब्धता।
जब से वे रिटायर हुए हैं तब से इस सन्नाटे को और भी सुन सकते हैं । पहले भी ऊब थी । जड़ता थी। जिंदगी बेसुरी थी। लय ताल था
ही नहीं। लेकिन रिटायरमेंट के बाद तो वह सब कुछ कई कई गुना बढ़कर जिंदगी में फैल गया है।
यह रोज का क्रम था। आते- जाते सड़क के बारे में उन्होंने कई चीजें स्वत: सिद्ध मान ली
थी ।
यह सड़क शहर के किनारे की सड़क है । कभी यह शहर के उस पार हुआ करती थी । आज शहर में है । शहर सड़क को अपने बीचो-बीच करने की फिराक में है । सड़क के उस पार भी शहर बढ़ गया है । लेकिन अभी भी वह किनारे की सड़क है।
सड़क के किनारे की हर दुकान के पीछे कोई न कोई किस्सा है । ये दुकानें किसी हारी हुई जिंदगी की अंतिम सांस हैं।
दुकानों पर ग्राहक नाम मात्र के हैं । जो है भी वे ग्राहक कम, साथी ज्यादा है।
लड़की ने दुकान खोल दिया है । भाई ने आसपास झाड़ू लगा दिया है । उसने दुकान को करीने से सजाया है। लाल रंग के कपड़े को पानी में भिगोकर बड़े जतन से उस पर डिब्बों को सेट किया है और दुकान को अच्छे से सजाया है ।
पान के पत्ते भिगोकर फैला दिए गए हैं । बाबू गर्व से गुमटी पर चढ़ता है । वह चढ़ने के पहले गुमटी को प्रणाम करता है। कुछ मानता भी है। बाबू ने धूप बत्ती जला दी है । धूप की महक दूर तक जा रही है।
सड़क सुबह कुछ और रहती है। शाम को कुछ और हो जाती है तो दोपहर में कुछ और । बिल्कुल जिंदगी की तरह ।
यह दोपहर का समय है जब सुबह का उछाह खत्म हो गया है और अभी शाम होने में देर है। ऊब बेचैनी या कुछ और? दोपहर किस चीज का पर्याय है ?
शाम , आशा बंधाती है । जो कुछ है या होगा सब कुछ , शाम के धुंधलके में मद्धिम हो...
सड़क ना होकर जैसे एक जिंदगी हो। कभी विरल तो कभी सघन।
कहीं - कहीं सड़क भीड़ में लुप्त हो जाती है।
तो कहीं - कहीं इतनी खाली , इतनी सपाट
कि ना आदमी ना जीव जंतु ।
इक्का-दुक्का फर्राटे भरते वाहन या ऊबता हुआ कोई आदमी , मानों यूं ही सड़क के अकेलेपन में अपना साथ ढूंढने आ गया हो।
सड़क के किनारे छिटपुट दुकानें भी हैं । कहीं-कहीं तो कतार दर कतार । दूर-दूर लेकिन क्रमबद्ध।
नाई की दुकान पर बैठे लोग , जो ग्राहक नहीं
है । चाय की दुकान और पान की गुमटी पर जमे हुए लोग।
वे थोड़ा और आगे चले । एक गुमटी। गुमटी पर बैठी औरत। वहीं टाइम पास करते कुछ लोग । अखबार पढ़ते , बतियाते सड़क पर आते जाते लोगों को देखते और कुछ सोचते से लोग।
वे ग्राहकों की मदद के लिए दुकानदार की तरफ से पेशकश करते। लगता है वे लोग भी किसी सन्नाटे से घबराकर दुकान पर आ गए हैं ।
वे लोग सन्नाटे से पीछा छुड़ाना चाहते हैं । चेहरे पर उदासी है, रिक्तता है, ऊब है या जीने का संतोष है कुछ स्पष्ट नहीं होता ।
वे भी तो सन्नाटे से घबराकर सड़क पर आए हैं। लेकिन औरों की तरह सड़क पर उनका कोई ख़ास नहीं है । वे थोड़ी देर चलते हैं। कहीं रुकते हैं दो-चार मिनट ।फिर चल देते हैं । और कुछ देर बाद घर में दाखिल हो जाते हैं। ऊब को बढ़ाते हुए तनहाई को गहराते हुए। सब कुछ खामोश समय की स्तब्धता।
जब से वे रिटायर हुए हैं तब से इस सन्नाटे को और भी सुन सकते हैं । पहले भी ऊब थी । जड़ता थी। जिंदगी बेसुरी थी। लय ताल था
ही नहीं। लेकिन रिटायरमेंट के बाद तो वह सब कुछ कई कई गुना बढ़कर जिंदगी में फैल गया है।
यह रोज का क्रम था। आते- जाते सड़क के बारे में उन्होंने कई चीजें स्वत: सिद्ध मान ली
थी ।
यह सड़क शहर के किनारे की सड़क है । कभी यह शहर के उस पार हुआ करती थी । आज शहर में है । शहर सड़क को अपने बीचो-बीच करने की फिराक में है । सड़क के उस पार भी शहर बढ़ गया है । लेकिन अभी भी वह किनारे की सड़क है।
सड़क के किनारे की हर दुकान के पीछे कोई न कोई किस्सा है । ये दुकानें किसी हारी हुई जिंदगी की अंतिम सांस हैं।
दुकानों पर ग्राहक नाम मात्र के हैं । जो है भी वे ग्राहक कम, साथी ज्यादा है।
लड़की ने दुकान खोल दिया है । भाई ने आसपास झाड़ू लगा दिया है । उसने दुकान को करीने से सजाया है। लाल रंग के कपड़े को पानी में भिगोकर बड़े जतन से उस पर डिब्बों को सेट किया है और दुकान को अच्छे से सजाया है ।
पान के पत्ते भिगोकर फैला दिए गए हैं । बाबू गर्व से गुमटी पर चढ़ता है । वह चढ़ने के पहले गुमटी को प्रणाम करता है। कुछ मानता भी है। बाबू ने धूप बत्ती जला दी है । धूप की महक दूर तक जा रही है।
सड़क सुबह कुछ और रहती है। शाम को कुछ और हो जाती है तो दोपहर में कुछ और । बिल्कुल जिंदगी की तरह ।
यह दोपहर का समय है जब सुबह का उछाह खत्म हो गया है और अभी शाम होने में देर है। ऊब बेचैनी या कुछ और? दोपहर किस चीज का पर्याय है ?
शाम , आशा बंधाती है । जो कुछ है या होगा सब कुछ , शाम के धुंधलके में मद्धिम हो...