उजड़ गया मेरा पड़ोसी
जरनैली सडक़ पर मज़हब के सताये हुए लोगों का चार मील लम्बा काफिला नए वतन की ओर जा रहा था।
मैं कहीं बाहर से अपने गाँव की ओर आ रहा था। मेरीज़ मंजिल से लगभग दो मील पहले—काफिले के बीच में—हमारी बस खराब हो गयी। सवारियाँ उतर कर सडक़ से नीचे की ओर बिखर गयीं और ड्राइवर इंजन का घूँघट उठाकर नुक्स देखने लगा।
सडक़ के बायीं ओर, सुस्त गति से बैलगाडिय़ाँ चीख रही थीं, जैसे कि पहिये धुरी पर विवश घूम रहे हों। भूखे, हाँफते हुए बैलों के कन्धों पर पूरे-पूरे कुटुम्ब का भार था। बैल बीमारों की तरह चल रहे थे उनके मालिकों के दिल उनकी चाल से सहमत नहीं थे। दूसरी ओर बैलों के पैरों से उड़ती धूल हवा की लहरों से चिपकती चारों ओर फैल रही थी।
बैलों के कंठों में घुँघरू नहीं बँधे थे। किसी-किसी बैलगाड़ी से बच्चों के सिसकने-रोने की आवा$जें आ रही थीं।
बैलगाडिय़ों पर लाशों-से भूखे पिंजर बेचारगी से चुपचाप देखते जा रहे थे। उनके पीले चेहरे धूल से धुँधलाये हुए थे। उनकी सड़ी-गली ज़िन्दगी पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, और हवा की खुश्क लहरों के साथ एक बदबू वायुमंडल में फैल रही थी।
मेरी इच्छा हुई, उजडक़र जा रहे लोगों को, और एक बार करीब से देख लूँ।
दो क़दम उठाते ही मैं ऊबड़-खाबड़ में सडक़ के दायें किनारे पर पहुँच गया। अचानक एक तरफ बैलगाडिय़ाँ खड़ी होने लगीं। शायद काफ़िले को रोका गया था।
मैं सुरमई सडक़ पर हो गया और लम्बी पंक्ति में खड़ी, प्रत्येक गाड़ी को देखता, धीरे-धीरे आगे बढऩे लगा।
किसी बैलगाड़ी से जब किसी की उदास आँखें मेरी ओर देखतीं तो मुझे देखते ही एकदम हट जातीं। प्रत्येक गाड़ीवान एक बार तो मेरी शक्ल से डर जाता जैसे मेरी आँखों में उन्हें बरछे चमकते नज़र आ रहे हों। मैं सुरमई सडक़ से हटकर फिर कच्ची पटरी पर आ गया।
तकरीबन तीन बैलगाडिय़ों के बाद, अचानक एक गाड़ीवान ने मेरी ओर देखा। उसकी नज़रें मुझसे हटते-हटते फिर मेरी ओर हो गयीं। उसने फिर मेरी ओर देखा और उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट उभर आयी। उसकी आँखों में चमक आ गयी जा इस काफिले में बिल्कुल अनहोनी बात थी।
गाड़ीवान एक छलाँग में गाड़ी से उतरकर मेरी ओर बढ़ा—जैसे कि उसकी छाती में कोई गोला फट गया हो—उसे छुरछुरी-सी महसूस हुई और वह फूटकर रो पड़ा।
‘‘ओ...हो...दुल्ला! बहुत बुरा हो गया यार! तू तो पहचान में भी नहीं आ रहा।’’ मैंने उसे देखकर कहा।
दुल्ले की सिसकी से गाड़ी में निढाल, बेहोश-सी लेटी जैनब के दिल को धक्का लगा। बाप का रोना सुनकर तो बेटियाँ कब्रों में भी जाग जाती हैं।
‘‘अब्बा...तुम...इधर आ जाओ...।’’ जैनब ने मरी हुई आवाज़ में कहा। उसकी आँतें जैसे अकड़ गयी हों। उसने मुझे पहचाना नहीं था। बैलगाड़ी से दूर जा रहे अब्बा को यह मौत के जबड़ों में जाता हुआ समझ ही थी।
‘‘दुल्ला! मेरे भैया, आओ हम कोई बात करें।’’ मैंने दुल्ला को सान्त्वना देते हुए उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा। उसके गाल आँसुओं से भीग चुके थे। उसने सिसकियाँ लेते हुए, अपनी कमीज़ के मैले पल्ले से आँखें और नाक पोंछा। रो-रोकर वह थक चुका था, उसकी आँखों लाल हो गयी थीं। उसने अपने को सँभालते हुए मेरी ओर देखा, और धीरे-सी गर्दन घुमाकर उसने अपनी बेटी से कहा, ‘‘बेटी जैनब, गुरबचनसिंह खड़ा है..., अपना पड़ोसी..., मिल लो...।’’
उसने ढीली बाँहों से...
मैं कहीं बाहर से अपने गाँव की ओर आ रहा था। मेरीज़ मंजिल से लगभग दो मील पहले—काफिले के बीच में—हमारी बस खराब हो गयी। सवारियाँ उतर कर सडक़ से नीचे की ओर बिखर गयीं और ड्राइवर इंजन का घूँघट उठाकर नुक्स देखने लगा।
सडक़ के बायीं ओर, सुस्त गति से बैलगाडिय़ाँ चीख रही थीं, जैसे कि पहिये धुरी पर विवश घूम रहे हों। भूखे, हाँफते हुए बैलों के कन्धों पर पूरे-पूरे कुटुम्ब का भार था। बैल बीमारों की तरह चल रहे थे उनके मालिकों के दिल उनकी चाल से सहमत नहीं थे। दूसरी ओर बैलों के पैरों से उड़ती धूल हवा की लहरों से चिपकती चारों ओर फैल रही थी।
बैलों के कंठों में घुँघरू नहीं बँधे थे। किसी-किसी बैलगाड़ी से बच्चों के सिसकने-रोने की आवा$जें आ रही थीं।
बैलगाडिय़ों पर लाशों-से भूखे पिंजर बेचारगी से चुपचाप देखते जा रहे थे। उनके पीले चेहरे धूल से धुँधलाये हुए थे। उनकी सड़ी-गली ज़िन्दगी पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, और हवा की खुश्क लहरों के साथ एक बदबू वायुमंडल में फैल रही थी।
मेरी इच्छा हुई, उजडक़र जा रहे लोगों को, और एक बार करीब से देख लूँ।
दो क़दम उठाते ही मैं ऊबड़-खाबड़ में सडक़ के दायें किनारे पर पहुँच गया। अचानक एक तरफ बैलगाडिय़ाँ खड़ी होने लगीं। शायद काफ़िले को रोका गया था।
मैं सुरमई सडक़ पर हो गया और लम्बी पंक्ति में खड़ी, प्रत्येक गाड़ी को देखता, धीरे-धीरे आगे बढऩे लगा।
किसी बैलगाड़ी से जब किसी की उदास आँखें मेरी ओर देखतीं तो मुझे देखते ही एकदम हट जातीं। प्रत्येक गाड़ीवान एक बार तो मेरी शक्ल से डर जाता जैसे मेरी आँखों में उन्हें बरछे चमकते नज़र आ रहे हों। मैं सुरमई सडक़ से हटकर फिर कच्ची पटरी पर आ गया।
तकरीबन तीन बैलगाडिय़ों के बाद, अचानक एक गाड़ीवान ने मेरी ओर देखा। उसकी नज़रें मुझसे हटते-हटते फिर मेरी ओर हो गयीं। उसने फिर मेरी ओर देखा और उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट उभर आयी। उसकी आँखों में चमक आ गयी जा इस काफिले में बिल्कुल अनहोनी बात थी।
गाड़ीवान एक छलाँग में गाड़ी से उतरकर मेरी ओर बढ़ा—जैसे कि उसकी छाती में कोई गोला फट गया हो—उसे छुरछुरी-सी महसूस हुई और वह फूटकर रो पड़ा।
‘‘ओ...हो...दुल्ला! बहुत बुरा हो गया यार! तू तो पहचान में भी नहीं आ रहा।’’ मैंने उसे देखकर कहा।
दुल्ले की सिसकी से गाड़ी में निढाल, बेहोश-सी लेटी जैनब के दिल को धक्का लगा। बाप का रोना सुनकर तो बेटियाँ कब्रों में भी जाग जाती हैं।
‘‘अब्बा...तुम...इधर आ जाओ...।’’ जैनब ने मरी हुई आवाज़ में कहा। उसकी आँतें जैसे अकड़ गयी हों। उसने मुझे पहचाना नहीं था। बैलगाड़ी से दूर जा रहे अब्बा को यह मौत के जबड़ों में जाता हुआ समझ ही थी।
‘‘दुल्ला! मेरे भैया, आओ हम कोई बात करें।’’ मैंने दुल्ला को सान्त्वना देते हुए उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा। उसके गाल आँसुओं से भीग चुके थे। उसने सिसकियाँ लेते हुए, अपनी कमीज़ के मैले पल्ले से आँखें और नाक पोंछा। रो-रोकर वह थक चुका था, उसकी आँखों लाल हो गयी थीं। उसने अपने को सँभालते हुए मेरी ओर देखा, और धीरे-सी गर्दन घुमाकर उसने अपनी बेटी से कहा, ‘‘बेटी जैनब, गुरबचनसिंह खड़ा है..., अपना पड़ोसी..., मिल लो...।’’
उसने ढीली बाँहों से...