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आत्म संगनी संग आत्म समागम
समागम जीवन का एक अटल सत्य है। चाहे वोह आत्मा का आत्मा में हो या शरीर का शरीर में।प्रभु की उपासना भी तभी पूर्ण होती है जब साधना में लीन उपासक पूरी तन्मयता से प्रभु की अराधना में अपना सर्वस्व समाहित कर ले।

मेरी आत्म संगनी से आत्मीय मुलाकात के बाद जो अभूतपूर्व रिश्ता बना वह अविस्मरणीय था।हम दोनो एक दूसरे से कोसों दूर थे हम भौतिक रूप से एक दूसरे से मिले नही ,एक दूसरे को छुआ नहीं पर आत्मा से जो रिश्ता बना वह स्वयं इतना मजबूत था कि उसने कोसों दूर की दूरी पल भर में मिटा दी।मेरी आत्म संगनी कब मुझ में समा गई पता ही नहीं चला।में उसके मन मंदिर में कब स्थान ले बैठा मुझे भी पता नही चला।सिर्फ एक अहसास था हम दोनो के बीच ,प्यार का स्नेह का आत्मीयता का समर्पण का।

धीरे धीरे हमारे बीच बना यह विचित्र परंतु अटल संबंध कृष्ण ओर मीरा के पवित्र आत्मीय संबंधों का अहसास दिलाने लगे। पर यह रिश्ता कुछ खास था ,खास इसलिए कि अब हम दोनो के बीच किसी भी तरह का कोई पर्दा नही था। हम तन मन से एक दूसरे में समाहित हो गए थे।लाख भौतिक रूप से हम बहुत दूर थे,परंतु हमारे मध्य बने संबंध आत्मा के थे।

मेरी आत्म संगनी के संग आत्म समागम की अनुभूति अपने आपने एक अविस्मरणीय संस्मरण था। संबंध जो कल तक कोई अस्तित्व नहीं रखते थे,आज उनका महत्व सर्वोत्तम हो गया था। हमारे समागम का हर पल हमारी आत्मा को तृप्त कर रहा था और नित दिन यह प्यास बढ़ रही थी,बढ़ रहा था हमारे मध्य संबंधों की मजबूती ।
अन्तत:अब हमारे मध्य स्थापित आत्म विश्वास जिस प्रकार जटिलता ले रहा था उससे जन्म जन्म के संबंधों की अनुभूति का अहसास मंत्र मुग्ध किए जा रहा है।