...

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ज़माना आज का...
कितना ज़हर घुला है अब दुनिया की बाज़ारों में,
अस्मत तक बिकती है अब खुलकर के अख़बारों में।

ढंग रहा ना बातों का, अब ना वो शिष्टाचार रहा,
इज्ज़त लुटती नारी की अब खुलकर के दरबारों में।

रिश्ते-नाते छूट गए, बस खेल रहा अब पैसों का,
मानव का ही ख़ून लगा है मानव की करतारों में।

अपना कहकर करें छलावा साख़ मिटाई यारी की,
कूटिनीति ही हावी है अब श्रद्धा की सरकारों में।

'पंचों' से पूछो स्वाभिमान और मर्यादा क्या होती थी?
अब सबकी औक़ात समाई ख़तरनाक हथियारों में।

परवाह किसीको रही नहीं निसदिन पिसते मजलूमों की,
बस शहंशाह बनते हैं सब अपने-अपने किरदारों में।