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बस इतना सा साथ 67
( ज्योति की कही बात पर सबको हैरानी थी और गुस्सा भी, पर समझ किसी के नहीं आ रहा था ज्योति ऐसा कह सकती है, उसकी सोच इतनी कैसे बदल सकती है । )
मम्मी - घर छोड़ के जाएगी तू , मतलब भी
समझती है इन बातों का । दो कदम बाहर
निकलेगी आटे- दाल का भाव पता चल
जाएगा। यहाँ .....
गौरव- ऐसे ही थोड़ी जाएगी, मैडम को हिस्सा
चाहिए। तुझे इतना भी पता है हिस्सा
किसको मिलता है। ( मम्मी गौरव को चुप कराने लगती है , पर गुस्सा उसका भी सातवें आसमान पर होता है। ) मम्मी आप रहने दो ,
इसी चीज़ ने तो सब बिगाड़ दिया। सब
अपने मन के हिसाब से चाहिए तो कुछ
करना भी होता है उसके लिए। तेरा मन
किया तूने हाँ कह दिया तेरा मन किया तूने
बैठे बिठाए ना कह दिया , ना ये सोचा उस
इंसान पर क्या बितेगी जो तेरे भरोसे किसी
को जुबान दे आया । हाँ जी साहब , आप
आराम से कह वो ना जाने क्या-क्या
अरमान बनाने लगा । तूने ना कारण बताया
किसी को , कोई कहे भी तो क्या कहें कि
क्यूँ कुछ घंटों पहले मना किया जा रहा है ।
अब नेहा की बात बन गई तो तुझे उससे भी
दिक्कत है ।
ज्योति - ( गुस्से में। ) मुझे कोई दिक्कत नहीं ,
मेरी बला से वो जहन्नुम में जाए।
गौरव- कुछ अच्छा नहीं बोल सकती तो कम से
कम कुछ बुरा तो मत बोल । तेरे मन में
इतनी कड़वाहट क्यूँ, और वो भी उस
लड़की के लिए जिसने तेरी ना जाने कितनी
मन मानीयों का हर्जाना भरा है। अभी भी
तो .....
ज्योति- अरे तो बिठा लो उसे मंदिर में, इतनी ही
महान है तो उसी की पूजा कर लो पर मुझे
माफ़ करो । और ऐसा नहीं कर सकते तो
मुझे मेरा हिस्सा दे दो मैं अपना अलग देख
लूँ। ( शिखा ज्योति को चुप कराने लगती है और मम्मी गौरव को पर कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। )
गौरव- तुझे जाना है ना , जा ( कह ज्योति को
हाथ से पकड़ खिंचता हुआ बाहर दरवाजे
की तरफ ले जाने लगता है । मम्मी और
शिखा ज्योति को अंदर की तरफ खींचने
लगते हैं । )
मम्मी - छोड़ उसका हाथ , माता रानी के लिए
मत बनाओ इस घर का तमाशा।
गौरव- आप ना छोड़ दो , फालतू में पैरो में
झटका लग जाएगा। ( फिर ज्योति की तरफ गुस्से में देखते हुए। ) इसको तो आज
इसका हिस्सा देना ही पड़ेगा।
शिखा - मुन्ने , हिस्से विस्से वाली कोई बात नहीं
है । पागल है ये अभी गुस्से में कुछ भी
बोल रही है।
गौरव - गुस्से में ही तो मन का मैल बाहर आता
है। आप भी कर लो गुस्सा ऐसे ही होता है
तो ।
ज्योति - मेरे मन में तो कोई मैल नहीं , बस अपना
हक माँग रही हूँ। जो तेरे मन के....
गौरव - हाँ, मैं देता हूँ तुझे तेरा हक । ( कह मम्मी
के हाथ को छुड़ाते हुए जोर से ज्योति को हाथ से दरवाजे की और खिंचता है। दरवाजे के बाहर कर ज्योति को कहता है। ) ये चौखट, ये है तेरा
हक । हिस्से के ना मैं लायक हूँ ना तू।
जितना बनता था उससे ज्यादा हमारी
पढ़ाई लिखाई पर खर्च कर चुके हैं। और
वैसे भी हिस्सा माँगा नहीं जाता, दिया
जाता है ।
मम्मी - दिमाग से काम ले , वो पागल है वो
निकल भी जाएगी कहीं इधर- उधर। और
तू अंदर आ , अंदर आकर बात कर यहाँ
दरवाजे पर खड़े हो सबको सुनाने की
जरूरत नहीं।
( ज्योति अंदर की तरफ कदम बढ़ाती है। )
गौरव - कहीं नहीं जाने वाली ये। ( ज्योति अपना कदम वहीं रोक लेती है। ) अरे जिसने आज तक
बैसाखियों पर ही चलना सीखा है वो सिर्फ
गरज सकती है बरस नहीं । जा तुझे जहाँ
जाना है , पर यहाँ तुझे सिर्फ ये चौखट ही
मिल सकती है। इतना ही हक है तेरा भी
और मेरा भी।
मम्मी- ( शिखा से ) तू नेहा को फोन लगा ।
गौरव- कोई जरूरत नहीं है, बिगाड़ तो उसी ने
रखा है। हर किसी की वकील बन खड़ी
हो जाती है और बदले में मिलता क्या है
उसे एक समझौता और ये नफरत।
इनको बिस्तर पर बिठाए रखती थी, और
घर के काम में आपकी मदद करती थी क्यूँ
उसकी पढ़ाई बहुत आसान थी या भगवान
जी से पहले ही सभी किताबें पढ़ कर आई
थी । सिर्फ इसलिए कि इनको बहाने की
आदत थी, किताबों की आड़ में वक़्त
बिताना था । कालेज में शॉपिंग हो , फेस्ट
हो सब इन्होंने एंजॉय किया वो बस क्लास
ख़त्म होते ही ट्यूशन में लग जाती थी क्यूँ,
क्यूंकि महंगाई बढ़ रही थी पर तनख्वाह
नहीं। कमाई एक थी पर ख़र्चे अनेक थे, ( मम्मी को कहता है। ) भूल गई आप , कैसे गैस
cylinder बेच-बेच कर घर का खर्चा
निकालती थी । तब भी ये दोनों बड़ी थी
क्या किया इन दोनों ने , उम्र में उससे
ज्यादा डिग्री में उससे ज्यादा पर फिर भी
ये घर पर थी । वो थी जो कॉलेज की क्लास
से पहले भी क्लास लेती थी और बाद में
भी। अरे सुबह 6 बजे की निकली हुई रात
8 के बाद घर आती थी पर आने के बाद
भी कभी कोई उससे ये पूछता था तेरा दिन
कैसा गया , कोई उलझन तो नहीं बल्कि
आते ही आप लोगों की ही शुरू हो जाती
थी मैने इसको ये कहा इसने मुझे ये ज़वाब
दिया । कभी किसी ने उसकी जगह खुद
को रख देखने की कोशिश की। अभी भी
तो उसने समझौता ही किया जिसको
उसने अपने बदले फैसले का नाम दे दिया
है। वरना सिर्फ मिलने की ही तो बात थी ( शिखा की तरफ इशारा करते हुए। ) तू मिल
लेती , पर नहीं किसी के मन में ये खयाल
आया ही नहीं। ( शिखा कुछ बोलने वाली होती है , पर गौरव कहता है। ) देख अभी
बिल्कुल नहीं, दिमाग तुम्हारा ही नहीं
हिलता मेरा भी हिलता है। फिर मैं कुछ
ऐसा ना कर बैठूं की छोटे बड़े की गरिमा ही
खो बैठे हम , जिसका बाद में हम दोनों को
सिर्फ मलाल और अफसोस ही रहे ।
क्यूंकि कुछ चीजें चाह कर भी बदली नहीं
जा सकती। पता है तुम लोगों की प्रॉब्लम
क्या है अचानक से सारा ध्यान नेहा पर आ
गया है ये तुम्हारी दिक्कत है । मन से तुम
उससे नफरत नहीं करते हो , पर जो हमेशा
तुम्हारे लिए होता था वो अब उसके लिए
होने लगा है ये सहन नहीं हो रहा तुमसे ।
हमेशा शॉपिंग तुम्हारी होती थी वो तुम्हारे
पिछली दिवाली के कपड़ों को इस
दिवाली अपने नए कपड़े बना लेती थी। ( शिखा की तरफ इशारा करते हुए। ) तेरी शादी
को ही याद कर ले सब शॉपिंग उसने की ,
सबके कपड़े लाई पर उसने क्या पहना
था याद है तुम्हें, नहीं याद ना मैं याद
दिलाता हूँ कुछ 6 साल पुराना मामा की
शादी वाला लहंगा पहना था और सब से
बहस कर ( ज्योति से ) तेरे लिए तेरी
पसंद की ड्रेस लाई थी ,जो तूने आज तक
दुबारा पहनी भी नहीं है । थोड़ा सब्र कर
लो , मैं तो कहता हूँ अच्छा है तूने मना
किया। छोटा- सा परिवार है हँसी खुशी
रहते हैं, कम से कम ऐसे क्लेश तो नहीं
होगा । ( फिर हाथ जोड़ते हुए। ) बस
इतना ही कहूँगा जितने दिन हैं उसके यहाँ
उसे शांति से रहने दो , और तुम्हारा एक
रुपया ले कर नहीं जाएगी देखना तुम्हें ।
कुछ दे कर ही जाएगी। बाकी जो कुछ
मम्मी पापा जोड़ रहे हैं, अपनी मर्जी से
जोड़ रहे हैं उसकी नहीं इनकी खुशी के
लिए चुप रहो । बाकी मेरा कोई हक नहीं
तुझे निकालने पर तेरे हिस्से का ज़वाब
मेरे पास और कुछ नहीं था ।
( ज्योति और शिखा एक दूसरे को देखते हैं, गौरव सोफ़े पर बैठ जाता है। अपने हाथों को माथे पर रख सोचता है । )
गौरव - कौन कहेगा हम एक ही परिवार के बच्चे
हैं। और ये क्या किया मैंने वो गलत थी तो
मैं कौन - सा सही था ।
( मम्मी ज्योती का हाथ पकड़ अंदर लाती है और
दरवाजा बंद कर अन्दर कमरे में जा बैठ जाती हैं, और सब कुछ जो हुआ उसके बारे में सोचती हैं। एक - एक शब्द कान में गूंज रहा होता है और आंखों से आँसू बह रहे होते हैं । अपने बच्चों के बचपन के बीते पलों को याद कर वो और रो रही होती हैं। )
मेरे आँगन की बगिया में,
ये कैसी रूत आई है
की सावन के संग
पतझड़ भी उमड आई है
महकाते फूलों में
काटों की रुसवाई है
क्यूँ अपनों के बीच
ये नफरत, ईर्ष्या आई है
मेरे आँगन की बगिया में
ये कैसी रूत आई है।





© nehaa