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श्रावणी

एक अर्से पहले की बात है। बरसात की पानी का ऐसा कहर ना किसी ने देखा था ना सोचा था। दिन का वक़्त था, पर अंधेरा घना था। घनघोर काले बादल आसमान पर मंडरा रहे थे। उसकी गरिमा देख रखा नहीं कि, बारिश ज्यादा होगी। सरोज अपने मामा के यहाँ गया हुआ था, एरसमा गाँव। कुछ दिन पहले ही तो उसके मामी ने उसे एक छोटी बहन उपहार में दी थी। श्रावण का महीना और बरसात घनघोर होने लगा। शाम का सूरज डूबा तो दिखा नहीँ। शाम को नामकरण संस्कार का पूजन प्रक्रिया सब संपन्न हो गया। बहुत चाव से अपने छोटी बहन का नाम उसने "श्रावणी" रखा था।

सब घरवाले बहुत खुश थे। रात का समारोह पश्चात, जो रिश्तेदार थे और आस-पडोस के, सब चले गए। हाँ दिक्कत तो बहुत हो रहा था, क्यों कि पानी का स्तर बढ़ रहा था। घर के चौखट पर जो रास्ते की जमीन से चार या पाँच सीढ़ी के ऊपर था, वहाँ तक पानी भर रहा था। जाने वाले तो चले गए, पर बहुत कठिनाइयोँ से जूझते हुए गए थे।

सबके जाने के बाद, सरोज जो बारिश के क़हर से अंजान था, अपने छोटी बहन के साथ खेल रहा था। मामा का घर एक मंजिल वाला था। देखते देखते बारिश का पानी घर का चौखट लांघ, घर के अंदर तक आ गया था। पहले चप्पल और जूते तैरने लगे, फ़िर ज़मीन पर रखा सामान को बिस्तर और मेज़ पर रख दिया। मामा, मामी और सरोज की माँ - सब लोग मिलकर घर को समेट रहे थे।
पर सरोज अंजाम से कोसों दूर। हर कोई अनजान था, क्या हो रहा है- कोहराम मच गया था। देखते देखते पानी बिस्तर के नाप को चीर कर ऊपर उठता गया। अब घबराहट की कोई सीमा नहीं थी। सरोज और सब लोग नन्हीं सी जान को लेकर छत पर चले गए। पानी का कहर या समंदर का उफ़ान जो आज उनको निगलने को तैयार थी। पूरा घर पानी के नीचे आ गया था। छत तो था, पर कोई सर छिपाने के लिए जगह नहीँ थी। पूरा घर भी तो नहीं बना था जो नये मेहमान का साथ मिल गया। वक़्त कम था मामाजी के पास। पर आज उसकी जरूरत आन पड़ी तो वो ख़ुद को कोस रहे हैं, सबको सान्त्वना दे रहे हैं। बारिश भी अपना रंग बदलती रही। तेज़ से ओर तेज़ होती गई। गांव में पेड़ पर चढ़ने की आदत थी सरोज को मामा ने आम की पेड़ की टहनी के सहारे ऊपर उठने को मदद करी।वो तो चढ़ गया, पर बारिश में भीगता रहा। ठंडी हवा और पानी संग पेड़ पर लिपटा रहा। मामा मामी और सरोज की माँ तीनों छत पर भीग रहे थे, बुत की तरह सिकुड़ कर। छोटी सी श्रावणी को बचाने की कोशिश मामी पुरजोर करती जा रही थी। धीरे-धीरे सरोज का मामा का घर पानी के नीचे चला गया, बाकी घरों की तरह। नन्हीं सी जान को लेकर सरोज रो रहा था, पर वो बेबस था। मामी उसे छिपाने की कोशिश कर रही थी, मगर पानी भी उनको निगलने के कगार पर था। मामा अपना ख़्याल ना किए भांजे को बचाने में सहायक हो रहे थे उधर एक कोने में माँ और बुआ श्रावणी को बरसात से बचाने में। इतने में लगा समंदर जैसे उठ कर एरसमा में घुस गया है, घुसपैठियों की तरह। लहरों की आवाज़ और हवा की सरसराहट के अलावा कुछ भी ना था। चारों तरफ बस पानी और पानी।
जब मामी के गर्दन तक पानी पहूँची, दोनों हाथों से मामी ने श्रावणी को बचाने की कोशिश में दोनों हाथों से ऊपर उठाया था। उसका रोने का आवाज़ था जो गुम हो रहा था हवाओं के संग। सरोज दूर से अंदेशा लगा रहा था, पलकें मूँदकर रो भी रहा था।

मामाजी भी डूब कर बस सर को ऊपर कर साँस ले रहे थे, क्यों कि वे लम्बे थे। लहरों के संग जंग करो तो, कितने देर तक। उधर छोटी सी श्रावणी ने कब रोना बंद कर दी पता भी ना चला। उसको बचाते-बचाते मामी और सरोज की माँ ने भी दम तोड़ दिया था।

चंद पलों के बाद, एक नन्हीं सी जान तैरते हुए भाई के बदन को यूँ छूँ कर तैरते हुए चली गई, जब सरोज सर को मोड़ कर देखा पेड़ के टहनी से जकड़े हालात में अपने आप पर भरोसा ना कर पाया। उसके मूँह से निकल गया- " श्रावण में श्रावणी चली गई !!!!!!!" ( फूँट-फूँट कर रोने की आवाज़, जो समीर और लहरों संग घुल गया था।

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