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प्रेम :-भाग-१, आकर्षण का मायाजाल
#प्रेम भाग -१
आकर्षण का मायाजाल
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क्रमश: से आगे...

आपका उतर तो यही होगा नहीं ....स्वयं से प्रेम कैसे कर सकते है ...और ठाकुर जी आप तो बिल्कुल गलत ही प्रश्न पुछ रहे है।
मैने तो प्रश्न सही पुछा है ...पर विचार करने की आवश्यकता है....समझने की जरूरत है।
परंतु बिडम्बना तो यही है कि व्यक्ति स्वयं को नहीं समझता है ...स्वयं के अवगुणों व दोषों को नहीं देखता है...वह तो सदैव दूसरों के अंदर ही अवगुण व दोष और कमियां ढूंढता रहता है।
प्रेम अर्थात प्यार तो इन सबसे अलग ही है....जो किसी भी में दोष व अवगुण नहीं देखता है ....मात्र करूणा ही देखता है....हृदय की पवित्रता को देखता है।
जिस क्षण तुम स्वयं से प्यार करने लगोगे तो मायाजाल छुट जायेगा ....अहं टूट जायेगा .....और तुम्हें स्वयं में ही दूसरों के अंदर भी अछाईयां दिखाई देने लगेगी।
परंतु यह इतना आसन भी नहीं है....आकर्षण सरलता से पीछा नहीं छोड़ा है।
और आजकल प्रेम तो केवल और केवल शारीरिक संबंध के प्रति उताबला रहता है .....बस कब शारीरिक संबंध की इच्छापूर्ति हो.....जब संबंध बन जाते है तो धीरे धीरे प्रेम का अस्तित्व समाप्त होता चला जाता है ......धीरे धीरे फिर दोनों प्रेमी एक दूसरे में बुराई खोजने लगते है।
आज के समय में तो प्रेम केवल और केवल संभोगानन्द के लिए बनाके रखा है।
और आज के आधुनिकता में तो प्रेम को आवश्यकता ही कहा जा सकता है ....क्योंकि हर एक लडका लडकी केवल एक -दूसरे से बाते करने के लिए संबंध बनाते है आकर्षण के आधार पर....और उसे प्रेम मान बैठते है ....परंतु जब तक मन निर्मल ना हो तो सच्चा प्रेम उत्पन्न हो नहीं सकता है।
केवल लडकी या लडके देखने को प्रेम नहीं कह सकता मैं.......कि एक दूसरे को देखा ...और आकर्षित हो गये ..और लड़का उसके नम्बर लेना की कोशिश करता है ...और नम्बर मिलने पर अपना परिचय देता है व इजहार कर देता है और लडकी हां कर देती है।
..........क्योंकि दोनों एकाकीपन में है....और आकर्षण में बंधे है.....इसी तरह से जब उन दोनों के मध्य लडाई झगडे होने लगते है तो दोनों एक दूसरे को सफाई देने लगते है....और एक दूसरे से कहने लगते है कि तुम मुझसे प्यार नहीं करते है ....और जब दोनों की लडाई अत्याधिक रूप ले जाती है तो नफरत नामक शत्रु जन्म ले लेता है और दोनों का प्रेम वहीं पर समाप्त हो जाता है ।
और कुछ दिनों के बाद दोनों किसी अन्य के साथ प्रेम के बंधन में बंधे होते है।
जहां तक रही वास्तविक प्रेम कि तो मेरे अनुभव के अनुसार चाहे दोनों में कितनी भी लडाई हो ....परंतु उन दोनों के अंदर अधिकार जितानी वाली बात नहीं आती है.....क्योंकि प्रेम में अधिकार नहीं जताया जाता है....उसमें तो समानता होती है ....एक दूसरे के प्रति आदर ,इज्जत व सम्मान होता है।
प्रेम का अर्थ है समानता ....भेदभाव नहीं करना .... उसमें तो यह प्रश्न उठता ही नहीं कि मैं अधिक प्यार करता हूं तुम कम करती हो या करते हो।
वह तो एक दूसरे को समानता से देखता है...एक दूसरे के प्रति इज्जत ,मान सम्मान रखता है।
इसके विपरीत आकर्षण में अहंरूपी बीज जन्म लेता है। जो कि सदैव न्यूनता व विभिन्नतायें ही रखता है......सदैव कम ज्यादा का भेदभाव रखता है जिसके कारण संबंध टूट जाते है।
यही कार्य आकर्षण का होता है ..इसलिए सही रूप से समझे और सही प्रेम को समझे ।© Nikhilthakur