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पीड़ा
कहानी संग्रह

1

जमाती के कारण
सरकार द्वारा लॉकडाउन में छूट दिए जाने के कारण आज बबली अपने घर का जरूरी सामान खरीदने के लिए बाजार गई। कोरोना के कारण सरकार ने एतिहात बरतने के लिए पूरे देश के अंदर लॉकडाउन किया हुआ था। बबली, आज मिले इस मौके को हाथ से नहीं देना जाना चाहती थी।
बबली जल्दी जल्दी सामान खरीद लेना चाहती थी। बाजार जाते ही बबली, अपने काम में बहुत व्यस्त हो गई थी। वह सामान खरीदने में इतना व्यस्त हो गई थी कि उसे अपना कुछ ध्यान ही नहीं रहा। जैसे जैसे वह बाज़ार में आगे बढ़ रही थी, उतनी तेजी से चीजों को देख लेना चाहती थी। वह बड़ी तेज कदमों से आगे जा रही थी। लेकिन अचानक उसे लगा जैसे उसकी नजरें ने किसी को देखा हो। उसने पलट कर देखा, उसने देखा कि कोई आदमी है। जो उसके साथ साथ ही चले आ रहा था, जिस को फिर देख लेना चाहती थी। बबली उसी जगह ठहर गई और सामान देखने का बहाना करने लगी।
बबली बड़े देर से उस आदमी को गौर से देखे जा रही थी। बीच बीच में वह आदमी भी बबली को देख देख कर सकुचा रहा था।
उस आदमी को देखने के बाद बबली के दिमाग के एक हिस्से में कुछ हलचल सी मच गई।
वह आदमी बबली को बहुत कुछ अपना सा लग रहा था। बबली अपनी स्मृति को खंगालने लगती है।


(बबली आज काफी दिनों बाद बाजार अाई थी। लॉक डाउन के चलते बहुत दिन हो गए लेकिन अब बाजार में बहुत भीड़ होने लगी थी। कोरोना का भूत लोगों के दिमाग से अभी निकाल नहीं पा रहा है, काफी लोग अभी भी मास्क लगा रहे हैं। लेकिन डिस्टेंस का पालन ठीक प्रकार नहीं कर पा रहे हैं।
घर की जरूरी चीजें खरीदने के लिहाज से बड़ी मुश्किल से बाजार के लिए निकल पाई थी आज, बबली।
जगह जगह लगी पुलिस की बेरिकेटिंग अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत भयानक लग रही थी, को पार करते हुए, एक अनजान से भय से भयभीत बाजार के लिए गई थी)

अपना ध्यान, थोड़ा सा हटा कर बबली आगे जाने को हुई।
लेकिन जैसे ही वह आगे जाने को मुड़ने लगी तो उसे लगा कि उस आदमी की भी कुछ हलचल बढ़ी है।

टेढ़ी नजर से, बबली ने उस आदमी की ओर फिर देखा, वह अब भी बबली को देखे जा रहा था।

बबली को वह आदमी कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था।
बबली अपने दिमाग पर जोर दे कर सोचे जा रही थी, यार इस आदमी को मैं जानती हूं।
लेकिन... नहीं... वह कोई और है???
नहीं यार, यह वह नहीं है? इसी उलझन में खुद ही उलझे जा रही थी।
उस व्यक्ति को देखने से, बबली को कुछ अच्छा सा फील हो रहा था।
दिमाग पर बहुत जोर आजमाने पर भी उसकी याद दास्त साथ नहीं दे रही थी।
बबली अब उस आदमी से जाकर खुद ही पूछ लेना चाहती थी। काफी असमंजस की स्थिति थी बबली की।
वह आदमी भी दूर की दुकान की तरफ मुंह कर लेता है, लेकिन नजरें अभी भी बबली को तलाश रही थीं।
करीब दस मिनट तक उस आदमी को देखने के बाद बबली को अपने संदेह पर थोड़ा विश्वास हो रहा था।
बबली ने फैसला कर लिया कि उस से पूछ कर ही रहेगी। बबली एक झटके से मुड़ी और उस व्यक्ति की तरफ चल दी।
बबली उस व्यक्ति के जैसे जैसे नजदीक जाने लगी, उसका विश्वास बढ़ता ही जा रहा था। बबली के चेहरे पर कुछ खुशी के भाव उभर रहे थे। काश यह वही हो? सोचती सोचती आगे बढ़ रही थी।

वह मोटा आदमी जिसके चेहरे पर लंबी दाढ़ी थी, सिर पर गोल टोपी थी, वह भी कुछ आश्वस्त होता जा रहा था।
झेंपते सा लग रहा, उस आदमी की आंखों में भी अब कुछ चमक बढ़ रही थी।
बबली बिल्कुल नजदीक पहुंच कर बोली।
सोनू ....??... तुम सोनू हो ना?
हां.. हां...दीदी....!
सोनू की आंखें डबडबा गई।

(बड़ी देर से सोनू बबली को देखे जा रहा था, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। उसके मन के भाव उमड़ रहे थे। उसका भी जी चाह रहा था कि दौड़ कर दीदी से लिपट जाए जैसे बचपन में लिपट जाया करता था। लेकिन अब पता नहीं खुद से ही डर रहा था। पता नहीं दीदी, कैसे रिएक्ट करेगी? मुझे वह इतना प्यार करती थी, पता नहीं अब करती है कि नहीं? कहीं भूल तो नहीं गई? ऐसे अनगिनत खयाल सोनू के मन में आ रहे थे। वह चाह कर भी अपनी दीदी को आवाज नहीं दे पाया।)

बबली, सोनू को पकड़ कर लिपट गई। बबली ने लॉक डाउन के कायदे की धज्जियां उड़ा दी थी। सारा डिस्टेंस खत्म कर दिया एक ही पल में। सालों की दूरी एक पल में ही मिटा दी। वर्षों से नहीं मिल पाने की कसक को मिटा देना चाहती थी।

सोनू की आंखों से अश्रु धारा बह निकली।
उसे एक ओर खुशी के आंसू आ रहे थे, क्योंकि आज वर्षों बाद अपनी दीदी को मिल पा रहा था। कितनी ही बार वह दीदी को याद करता था उस का सब्र का बांध पल भर में टूट गया। दूसरी ओर वह शर्मिंदगी भी महसूस कर रहा था कि मेरी उस दीदी को शक की निगाह से देख रहा था जिसके मन में अब भी वही प्यार बसा हुआ है।
सोनू, बबली के पैरों को छूने लगा।
बबली ने सोनू को अपने गले लगा लिया। बिल्कुल बच्चे कि तरह, जैसे वह 6 फूट का नौजवान न होकर दूध पीता बच्चा हो।
तू मुझे पहचान गया था, सोनू?
बबली जिज्ञासावश पूछने लगी।
बबली को लगा जैसे सोनू पहचान कर भी छिप रहा था।
हां..दीदी!
आपको तो मैं देखते ही पहचान गया था। तुम अब भी उतनी ही छोटी सी हो।
आपका चेहरा भी बिल्कुल नहीं बदला दीदी।
30 साल बाद भी तुम सेम टू सेम हो।
बस, अब थोड़ी सी मोटी हो गई हो।
पहले तुम बहुत ही पतली सी थी, दीदी।
सोनू बताए जा रहा था। बबली, सोनू की याददाश्त को लेकर खुश हो रही थी। उसे लग रहा था कि वह बोलता ही जाए, और वे सारी बातें बताता जाए जो उसे बचपन की यादें ताज़ा कर दे।
अगले ही पल बबली गुस्सा होकर -
लेकिन तुम मुझे आकर मिले क्यों नहीं, सोनू? बबली, अपनेपन के हक को जताने, नाराजगी दिखाते हुए बोली।
सोनू! तुम सिमट क्यों रहे थे? बताओ ना सोनू?
रोते हुए बबली सोनू से पूछे जा रही थी।
दीदी...!
अब सोनू की आवाज में कम्पन पैदा हो गई थी।
दीदी ...अब ...
अब क्या सोनू, बोल ना... तू दीदी को भूल गया या...?

नहीं दीदी...कैसे भूल सकता हूं? सोनू ने जल्दी से जवाब दिया। बचपन में आपके द्वारा बांधी गई राखियां अब भी मेरे पास रखी हैं।
फिर सोनू...तू खड़ा क्यों रह गया...?
जैसे बबली को कोई मलाल था कि सोनू आकर मुझसे क्यों नहीं मिला?
बबली की आंखों से अश्रु धारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
रहमान चाचा कहां है सोनू, खाला कहां है?
अगले ही पल
अनगिनत सवालों की झड़ी लगा दी बबली ने।

(अपनी तीस साल पहले की जिंदगी में, पीछे देखने लगी बबली।
सोनू का घर उसकी ही गली में था। दिल्ली की स्लम बस्ती में। जहां वे एक दूसरे के घर दिन में अनगिनत बार आते जाते रहते थे।
हावड़ा में भी उनके घर नजदीक ही थे। इसलिए दिल्ली में भी गांव का ही रिश्ता बना रहा। रहमान चाचा भी पापा को दादा (बड़ा भाई) ही कहते थे। घर की हर बात साझा होती थी। परिवार में किसी सदस्य की हारी बीमारी, बच्चों की पढ़ाई, काम की तलाश, सब कुछ साझा होता था। हमारे घर दुर्गा पूजा में, रहमान चाचा पूरे परिवार के साथ आते थे, साथ साथ खाना खाते। ईद पर हम भी पूरा परिवार सोनू के घर रहते। कितना घुल मिल कर रहते थे हम सब।

बिना कोई जाति बिरादरी के भेद के, बिना कोई धार्मिक भेद के। मुझे पता ही नहीं लगा कि हिन्दू, क्या होता है?, मुसलमान क्या होता है? और इनमें कैसा भेद, वह कभी समझ ही नहीं पाई।

लेकिन काम की तलाश में रहमान चाचा अपने परिवार के साथ, अपना दिल्ली का घर बेच कर, सऊदी चले गए थे।
उनके जाने के कुछ दिनों बाद ही पापा का कारोबार भी घाटे में चला गया। हमने भी घर बेच दिया था। दुकान बेच दी थी। फैक्टरी भी बंद हो गई थी। सब कुछ बेच कर लोगों का कर्ज अदा कर, पापा दिल्ली से कलकत्ता के पास ही 24 परगना, जिला चले गए। मेरी शादी यहां दिल्ली में हो गई। मैं दिल्ली में ही रह गई, अपने पति के साथ। लेकिन दिल्ली में रहते हुए भी पुराने मकान पर आना जाना सब छूट गया था। रहमान चाचा की कोई चिट्ठी भी अाई होगी तो कैसे पता चलता?
आज अचानक सोनू को देखा तो सारा दृश्य आंखों के सामने से फिल्म की तरह, रिपीट हो गया।)
सोनू किंकर्तव्यविमूढ़ हो, जड़ बना खड़ा रहा।
बबली अब गुस्से में बोली, बता सोनू तू खुद क्यों नहीं मिला, आकर?
मैं तो तुझे पहचान नहीं पा रही थी, जब तो तू छोटा सा था। गोलू मोलू सा था। अब छह फूट का हो गया है। चेहरे पर दाढ़ी आ गई है, इसलिए मुझे थोड़ी कठिनाई हो रही थी पहचानने में।
वो ...दीदी
अब....
अब क्या सोनू बोलेगा भी।
सोनू बड़ी हिम्मत जुटा कर बोला।
दीदी अब माहौल बिगड़ गया है। डरने लगा हूं, क्या पता रिश्ते भी बदल गए हों। इस हिन्दू मुस्लिम की डिबेट में।

सोनू ठिठक जाता है, यह बात कहते कहते।
दीदी, टीवी की डिबेट ने सब कुछ बदल दिया है। बड़ी नफ़रत फैला दी है, लोगों के बीच। घटिया सोच के लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हैं। मैं तो वही सोनू हूं दीदी, मेरे दिल को बड़ा धक्का लगा है। पिछले कुछ सालों में कितना बदल गया है। कभी कल्पना भी नहीं की थी, ऐसे मंजर देखना पड़ रहा है।

बबली, भाव विह्वल हो गई। लेकिन सोनू की बात सुनकर थोड़ी देर के लिए सहम सी गई। वह सोच रही थी कि किस तरह मीडिया ने हिन्दू मुस्लिम का मुद्दा उठा कर आपसी भाई चारे को ठेस पहुंचाई है। जमाती, मरकज के अलावा जैसे कोई मुद्दा रह ही नहीं गया था, मीडिया के पास।
लेकिन बबली के पास बचपन कि बहुत सी मीठी यादें थी। कितना भाई चारा था, एक दूसरे को देख कर कभी शक पैदा नहीं हुआ। मीडिया ने सोनू जैसे कितने मासूमों के मन में धर्म की नफ़रत का जहर भर दिया। या यूं कहूं कि कैसे संदेह की दीवार धर्मों के बीच खड़ी कर दी।
सोचते सोचते अपने छोटे भाई से भी प्यारा सोनू को और उसके परिवार की भावुक यादों को भूल नहीं पाई थी।
यादें जैसे कल की ही बातें बता रही थी, फिर यकायक बबली का ध्यान सोनू की तरफ गया।
बबली कहने लगी।
देख... सोनू.....?
सोनू तू, मेरा छोटा भाई है और रहेगा।

मेरे लिए, रहमान चाचा अब भी मेरे चाचा ही हैं।
तू पहले भी मुसलमान था, अब भी मुसलमान रहेगा। रिश्ता थोड़े ही बदल जाएगा।
सोनू भारत की राजनीति भले ही लोगों में नफ़रत फैला दे, लेकिन हिन्दू मुस्लिम एकता की अनगिनत मिशाल हैं हमारे देश में। आपसी भाई चारे की कहानियां हैं और उनकी मिशाल विदेशों में भी सुनाई जाती हैं। फिर सोनू यह बताओ, मुस्लिम भी तो यहीं के ही हैं। जिस तरह परिस्थितयों में आज बदलाव आ रहा है। इतिहास में पहले भी तो ऐसा हुआ था, जब देश के बहू संख्यक बहुजनों ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया था। देश के लोगों का सैंकड़ों वर्षों का भाई चारा है, सोनू।
आपसी भाई चारे की दिशा को, टीवी की कुछ डिबेट तय नहीं कर सकती। दिलों में बसा प्यार इन टीवी के इन पर्दों से, सरहदों से और कुछ किलो मीटर की दूरियों से नहीं मिट सकता है।
आज वर्षों बाद, अपने छोटे भाई के मिलने पर लगतार रोए जा रही थी, बबली। सोनू की भी आंखें लाल हो गई थी।

श्रीलाल जे एच आलोरिया
दिल्ली




कहानी 2
बुद्धप्रकाश

"आकाश को बचा लो"
राधा ने रुआंसे होकर अपने पति रामप्रकाश को कहा!
रामप्रकाश, अपनी पत्नी राधा से आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला-
"क्यों, क्या हुआ इतना उदास नजर आ रही हो?"
"देख नहीं रहे हो बच्चे को बहुत तेज बुखार है?" राधा ने रूखा सा जवाब दिया।
रामप्रसाद बोला - "देखने से कैसे पता लगेगा? इसके शरीर को छूकर देखने से ही पता लगेगा कि उसे बुखार है।"
"लाओ मुझे गोद में दो.."
रामप्रकाश बच्चे को राधा की गोदी से लेते हुए बोला।
"अरे! उसका शरीर बुखार से बहुत तेज जल रहा है।"
रामप्रकाश बच्चे को छूकर देखता है -
"इतना तेज बुखार और तुमने मुझे बताया भी नहीं।"
"आकाश के पापा उसे जल्दी से हॉस्पिटल ले चलो" राधा ने अधीर होते हुए कहा।
"राधा तुम हॉस्पिटल की बात करती हो इतना पैसा कहां है?" रामप्रकाश ने असमर्थता जताते हुए कहा।
रामप्रकाश अपनी बात को जारी रखते हुए राधा को सुझाव देता है -
"राधा, ऐसा करो भगत जी के पास चलते हैं।"
राधा कुछ ना बोली। उसे तो बच्चे की फ़िक्र हो रही थी।
"भगत जी, देखो तो हमारे आकाश को क्या हुआ है?" रामप्रकाश लगभग दौड़ते हुए भगत जी के पास पहुंचा।
भगत जी, रामप्रकाश को तसल्ली देते हुए बताते हैं कि
"देखो रामप्रकाश, तुम्हारे बेटे आकाश पर कोई बहुत बड़े भूत का साया है।"
भगत जी ने गहरी सांस लेते हुए अपनी बात को पूरी करते हुए बताते हैं ।
"तुम्हारा बेटा उससे लड़ नहीं पाया और भूत ने तुम्हारे बेटे को बहुत बुरी तरह से दबोचा है, जिससे उसे बुखार हो गया।"
हां तो, भगत जी कुछ उपाय करो ना, मेरे आकाश को बचा लो! रामप्रसाद बोला।
"देख, रामप्रकाश मैं इसमें कुछ नहीं कर पाऊंगा। तुम ऐसा करो भैरू बाबा के लिए तुम्हें प्रसाद चढ़ाना पड़ेगा और उसी प्रसाद के फल स्वरुप तुम्हारा बेटा ठीक हो जाएगा।"
रामप्रकाश बोला ठीक है भगत जी बताओ क्या-क्या चढ़ाना है प्रसाद में?
भगत जी ने बताया- "एक बकरा लेकर आओ और दो बढ़िया वाली दारू की बोतल।" भगत जी अपनी बात में थोड़ी गंभीरता लाते हुए बताते हैं, ताकि रामप्रकाश को विश्वास हो जाय।
"देखो भैरों बाबा को खुश करना पड़ेगा और यह भैरू बाबा ही हैं जो तुम्हारे बच्चे पर से भूत उतार सकते हैं।" थोड़ा विराम देते हुए अपनी बात जारी रखते हैं - "उस भूत से भैरों बाबा ही लड़ेंगे।" अपनी बातों में फसाने का प्रयास करते हुए भगत जी अपनी बात जोर डाल कर बताते हैं -
"भैरव बाबा में बहुत ताकत है, मैं तुम्हारे बच्चे को बिल्कुल ठीक कर दूंगा।"
भगत जी की बात सुनकर, रामप्रकाश उदास सा हो गया। रामप्रकाश अपनी मजबूरी को कैसे बताए, इसी उहा पोह से निकलने का विचार करते हैं।
राधा, अपने पति की मजबूरी को जानती थी, वह थोड़ी फुसफुसाते हुए रामप्रकाश से कहने लगी।
"आकाश के पापा यह तो बहुत ज्यादा महंगा खर्चा होगा। एक बकरा, दो दारू की बोतल इतना पैसा तो हमारे पास बिल्कुल भी नहीं है।"
ठीक भगत जी जुगाड़ करके लता हूं, रामप्रकाश ने बहाना बनाया।
रामप्रकाश अपने बच्चे को भगत जी के पास से वापस लेकर आ गए।
रास्ते में रामप्रकाश का दोस्त मिलता है। उसे रामप्रकाश बताता है कि उसके बेटे को बुखार है। दोस्त बोला- "बच्चे को अगर बहुत बुखार है तो ऐसा करते हैं हम मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं वहां पर पुजारी जी आ करके झाड़ा लगाएंगे। उस झाड़े से हमारा बच्चा बिल्कुल ठीक हो जाएगा।"
राधा फिर से बोलती है, मैं तुम्हें कह रही हूं कि हमारे आकाश को किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले चलो।
तुम हो कि फिर झाड़ फूंक के चक्कर में पड़ गए।
रामप्रकाश का दोस्त ने धीरज दिलाते हुए कहा - अभी तुम देखो पुजारी जी थोड़ी देर में उसको ठीक कर देंगे चलो।
वे सब बच्चे को लेकर
मंदिर के सीढ़ियों पर बैठकर पुजारी जी का इंतजार कर रहे हैं। 1 घंटे के इंतजार के बाद पुजारी जी आते हैं और उसके बाद पुजारी जी पहले दक्षिणा की मांग करते हैं।
500 ₹1 दक्षिणा लेता हूं तब जाकर के मैं झाड़ू लगाता हूं, पुजारी बोला।
राधा फिर वापस आकर रामप्रकाश के कान में बोली, आकाश के पापा हमारे पास ₹500 कहां से आयेंगे?
रामप्रकाश तू चुप रह मैं किसी से उधार ले लूंगा।
रामप्रकाश अब बच्चे को लेकर घर वापस आ जाते हैं।
वह गांव के ही एक पढ़े लिखे और पैसे वाले आदमी के पास ₹500 उधार लेने जाते हैं।
वह व्यक्ति रामप्रकाश से पूछता है अरे रामप्रकाश ₹500 तो मैं दे दूंगा लेकिन बताओ तो ऐसे अचानक क्या जरूरत आन पड़ी।
भैया तुम्हें तो पता है हम बहुत गरीब आदमी हैं।
हां तो क्या घर में आटा नहीं है क्या?
नहीं भैया वह बात नहीं है।
फिर क्या बात है मुझे बताओ तो सही।
भैया वह क्या है ना कि मेरे बेटे आकाश को बहुत तेज बुखार आया है तो पुजारी जी पहले दक्षिणा के लिए ₹500 की मांग कर रहे हैं। मेरे पास बिल्कुल पैसा नहीं है। अब मेरे बच्चे का क्या होगा?
इसलिए आप से ₹500 की मदद मांगने आया हूं, जल्दी चुका दूंगा।
रामप्रकाश बात पैसे चुकाने की नहीं है।
बात है तुम पैसे का गलत जगह उपयोग कर रहे हो?
क्या भैया आप भी ना, ऐसे कोई बोलता है पुजारी जी के खिलाफ?
मैं सही कह रहा हूं इन पुजारियों के पास बुखार का कोई इलाज नहीं है। तुम्हारे रुपए भी जाएंगे और तुम्हारा लड़का भी नहीं बचेगा।
इतनी देर में ही राधा दौड़ते हुए अपने बच्चे आकाश को लेकर आती है। वह रामप्रकाश के पास आकर चिल्लाती है। देखो, मेरा बेटा बेहोश हो गया, कुछ जल्दी करो।
गांव का वृद्ध आदमी रामप्रकाश को बोलता है, तुम बहुत मूर्ख व्यक्ति हो रामप्रकाश
इस तरह तो तुम्हारा बच्चा मर ही जाएगा।
भैया इस तरह की बात मत बोलो। अशुभ बातें मत बोलो भले ही पैसा मत दो।
रामप्रकाश में पैसा देने के लिए मना नहीं कर रहा हूं और यह भी कि शुभ अशुभ बातें नहीं होती जो सच्चाई है वही बातें बता रहा हूं।
तुम अपने बच्चे की हालत को देख ही नहीं पा रहे हो और तुम पुजारी पंडे के चक्कर में पढ़ कर के अपने बच्चों को खो दोगे।
फिर भैया मैं क्या करूं?
अरे रामप्रकाश शहर जा, वहां सरकारी अस्पताल है उसमें इमरजेंसी सेवा होती है, वहां चले जाओ।
ठीक है भैया मैं चला जाता हूं। मुझे पैसे तो दे दो।
रामप्रकाश पैसे तो यह ले लो लेकिन इमरजेंसी में आपको कोई पैसा देना नहीं पड़ता है।
तो क्या डॉक्टर बिना पैसे के इलाज कर देंगे? हैरान होकर रामप्रकाश पूछता है।
सरकारी अस्पतालों में तो मुफ्त में ही इलाज होता है रामप्रकाश।
हां भैया लेकिन उन्हीं अस्पतालों में गलत दवाई देते हैं। इससे आदमी का इलाज ढंग से नहीं हो पाता है।
तुम बहस करोगे या जल्दी से बच्चे को अस्पताल लेकर जाओगे?
नहीं भैया अभी आता हूं।
राधा भी रामप्रकाश के पीछे बच्चों को लेकर दौड़ते हुए अस्पताल जाती है।
डॉक्टर साहब मेरे बच्चे को बहुत तेज बुखार हुआ है देखो देखो यह बेहोश हो गया है
डॉक्टर ने तुरंत बच्चे को लेट आया उसके माथे पर जैसे ही आप लगाया आपकी तरह तप रहा था उसका माथा
डॉक्टर ने नर्स को तुरंत बुलाकर माथे पर ठंडी पट्टी रहने को कहा
नस ने उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखना शुरू हुआ
डॉक्टर नर्स को बोलता है जाओ वह इंजेक्शन भरके और यह इंजेक्शन इस बच्चे को लगा दो
नर्स राधा को बोलती है बहन यह पट्टी बार-बार बदल बदल कर लगाती रहना मैं अभी इंजेक्शन लगाती हूं
नर्स और बच्चे को इंजेक्शन लगा देती है
राम प्रसाद डॉक्टर साहब अब मैं क्या करूं
देखो अभी बच्चों को हमारे पास आधा घंटा रोकना पड़ेगा मैं अभी इसको जान लेता हूं और मुझे पूरा विश्वास है कि आधे घंटे में तुम्हारा बच्चा स्वस्थ हो जाएगा
उसके बाद मैं तुम्हें दवाई दे देता हूं और दवाई का पूरा कोर्स करा देना
इन दवाइयों है तुम्हारा बच्चा बिल्कुल स्वस्थ हो जाएगा
वह द्वारा से फिर यहां से खेले लगेगा
आधे घंटे बाद आकाश को होश आ गया और वह अब अपने को अच्छा महसूस कर रहा था
आकाश अपनी मां को आवाज देता है मां मुझे पानी दो
आकाश के पापा देखो अपने बच्चे को होश आ गया और वह पानी मांग रहा है
अरे हां देखो मैं तो उठ कर बैठ गया सुनो उसे पानी देते हैं
डॉक्टर मुस्कुराता हुआ रामप्रकाश के कंधे पर हाथ दे जाता है देखा तुम्हारे बच्चा आधे घंटे में ठीक हो गया ना मैंने कहा था
राजभर जाति के पैरों में पड़ने लगता है
अरे क्या कर रहे हो ऐसी हरकत मत करना
नहीं डॉक्टर साहब आप तो मेरे भगवान हो आपने मेरे बच्चे को बचा लिया
देखो मैं भगवान तो नहीं है लेकिन हमें डॉक्टर और मैं अपना सेवा दे रहा था
मैं मेरे कोई पैर सोने जैसे कोई बात नहीं है डॉक्टर का कार्य है मरीजों की देखभाल करना और मैं अपने कर्तव्य को निभा रहा हूं अब तुम्हारा बच्चा बिल्कुल शांत हो जाएगा जय
राधा भक्ति उसका बच्चा अवश्य फिर उसी तरह अच्छी-अच्छी बातें कर रहा था
घर आकर राधा रामप्रकाश पर जम्मू कर हल्क आती है
बाबा बोलती है तुम्हारी वजह से 3 घंटे तक मेरा बच्चा बुखार में पढ़ा था
तुम पंडित पुजारी के चक्कर में आज मेरे बच्चे का सत्यानाश कर दिया
बाल हो डॉक्टर साहब का और भला हो बड़े भैया का जो उन्होंने तुम्हारी बुद्धि में कुछ अच्छी बात भर दी
उनकी सलाह में हमारे बच्चे को बचा लिया
अगर वह हमें जानकारी नहीं देते तो हम अपने बच्चे से हाथ धो बैठते हैं
खबरदार आज के बाद किसी पंडित पुजारी चक्कर में फंसा दो
रामप्रकाश राधा के सामने गढ़ गढ़ आता है और कैसा है
रामप्रकाश राधा को कैसा है तुम्हारी वजह से आज हमारा बच्चा अब मैं किसी भी पंडित ऐसा नहीं करूंगा
राधा मैं पागल नहीं हूं
मैं तो मन ही मन में बच्चे की दुआ के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहा था
अब तो राधा का पारा सातवें आसमान पर था
चलाकर के बारे भगवान ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली
ओ राधा तू तो सच बोल रही हो मैंने तो बहुत कुछ पूछ रहा था कि लेकिन मेरा बच्चा तो ठीक हुआ नहीं
इसीलिए तो कह रही हूं तुम्हें
समझ नहीं आता हमेशा भगवान के चक्कर में पड़े रहते हो
और आधा तुम तो मुझे बहुत बार समझाती हो कि भगवान भगवान का चक्कर कुछ नहीं होता अब मेरी बात तुम इस बात समझ में आ रही है की जय भगवान वगैरह का कोई चक्कर नहीं है
राधा बोली एक सलाह और मानोगे
हां बोलो तो सही राधा अब मैं तुम्हारी हर बात मानूंगा मुझे अब समझ आ चुका है
राधा बोली, तुम अपना नाम बदल लो
समझ आने का मतलब अब तुम्हारी बुद्धि काम करने लगी है
हां राधा अब मेरे समझ आ गया, तुम बताओ
क्या नाम रखूं
राधा बोली आज से तुम्हारा नाम रामप्रकाश नहीं बुद्ध प्रकाश होगा

श्रीलाल जे एच आलोरिया
दिल्ली

3
शादी क्यों नहीं की?

हेलो!
टेलीफोन पर दूसरी ओर से
हां जी सर, हेलो नमस्कार!

सुनाओ, शील कैसे हो?
मैं अच्छा हूं सर, आप सुनाएं.

कहां पर हो इस वक्त, क्या थोड़ी बात कर सकता हूं?
घर पर ही हूं, सर। करिए ना, फ्री हूं.

शील, मैंने तुम्हें ऑफिस में हमेशा चुपचाप काम करते हुए देखा है.
आप हमेशा डरे से, सहमे से और झिझकते से रहते हो? कभी किसी से खुलकर बात नहीं करते। मैंने पूछा
(शील, हमेशा सभी से बहुत विनम्रता से बात करते हैं. वे हमेशा सौम्य बने रहते हैं)

कोई खास बात है क्या? मैंने फिर कहा।
मेरी यह बात सुनकर
शील गंभीर हो जाता है...

(शील अपने काम के प्रति बेहद समर्पित था, उसमें काम करने की बहुत लगन थी। वह अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित था, ऐसा समर्पण बाकी एम्पलॉइज में कम ही देखने को मिलता था।
शील, स्वभाव से एक स्थिर व्यक्तित्व का मालिक है। वह लगभग एक बेजान पत्थर की मूर्ति की तरह दिखाई देते हैं, चेहरे पर कभी कोई भाव नहीं देखे जाते थे। ना कोई खुशी में उसके चेहरे पर मुस्कराहट, ना गम में दुखी, एकदम शांत चित्त। हमेशा धीर गंभीर मुद्रा में ही स्वचालित मशीन की तरह अपने काम में लगे रहते हैं शील। उसकी लगन और मेहनत को देख कर मेरे मन में एक अपनापन का एहसास होने लगा था।)

शील की आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा।

"हां सर, घर में इस तरह का माहौल नहीं रहा कि हम कोई खुशी में खुश हो सकें. हमारे पूर घर का माहौल डरावना सा बना रहा हमेशा और वे ही लक्षण मेरे अंदर धीरे-धीरे समाते चले गए। इसलिए मेरा व्यक्तित्व एक भीरू इंसान के जैसा बन गया। अंतर्मुखी रहने का भी यही कारण है।"

शील को बीच में टोकते हुए कुतुहलवश मैंने पूछा।
"घर का माहौल .....????"

"हां सर, हमारे घर में सभी लोग ऐसे ही पले बढे हैं, डर के साए में। क्योंकि हमें पता नहीं होता था कि कब और कौन हमें आकर धमका जाए, गरीबी और नीची जाति के कारण? आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि पूरे परिवार को किस दिन भूखा ही सोना पड़ जाए? यह भी पता नहीं होता था हमें।
हम लोगों ने बहुत गरीबी देखी है... सर।"
(शील कहते कहते थोड़ा रुक जाता है)

"खाने को भी दाने नहीं होते थे, हमारे घर में। पुराने दिनों की याद आ गई है।" अपनी बात जारी रखते हुए, शील ने आगे बताया।

"ओह, बड़ा दुःख हुआ जानकर। सच में, मुझे बहुत पीड़ा हुई सुनकर।" मैंने लंबी सांस भरकर शील को कहा।

( मैं सोचने लगा कि एक बालक के कोमल मन पर, भूख और सामुदायिक प्रताड़ना का कितना भयंकर प्रभाव पड़ता होगा? क्या वह बालक सोच पाता होगा कि वह बड़ा होकर कोई बड़ा आदमी बनेगा? जैसे- कोई खेल का राष्ट्रीय खिलाड़ी, कोई सांसद, विधायक, वैज्ञानिक इत्यादि। यह अंदाजा लगना भी मुश्किल है कि कोई बालक सामुदायिक आक्रमण को झेलते हुए डॉक्टर, इंजिनियर, वकील बनने के लिए सपना पाल सकता है? इसी उधेड़बुन में अचानक मैंने फोन काटने का निश्चय किया)

"सॉरी, फिर बात करूंगा। अभी एक अर्जेंट कॉल आ रही है।"
(शील की पीड़ा सुनकर मन व्यथित हो गया, मैंने बहाना बनाते हुए कहा।)

"जी सर, ओके।" शील के इस छोटे से उत्तर से मैंने अंदाजा लगाया कि शील आज पुनः दुखी हो गया।

मैंने फोन काट दिया। बात चीत का सिलसिला वहीं बंद हो गया।

( फोन काटने के बाद मैं घंटों सोचता रहा। समाज में ऊंच नीच का भेद क्या इतना भयावह हो सकता है? क्या किसी जाति विशेष में जन्म लेना इतना आपराधिक है और इस जन्म आधारित जाति व्यवस्था का दंश इस तरह झेलना पड़े जैसे कि अपने ही देश में कोई बहुत बड़ा अपराधी जीवन व्यतीत कर रहा हो। जन्म लेना कोई अपराध तो नहीं। फिर इतनी जातिगत नफ़रत, इतनी सामुदायिक दुश्मनी क्यों? प्रताड़ना का स्तर इस प्रकार का कि कोई गंभीर अपराध करे तब भी उस अपराधी को शायद इतनी हेय दृष्टि से ना देख जाए। लेकिन विशेष जाति में जन्म लेने का मतलब, उससे पीढ़ियों की दुश्मनी निकली जाए?)
***
2
अगले दिन सुबह
ऑफिस में
"हेल्लो, शील? कैसे हो?" मैंने शील को पूछा
"गुड मॉर्निंग,सर!
बढ़िया सर। आप कैसे हो?"
शील ने जवाब दिया।
"कल बात नहीं हो सकी, सॉरी यार, फिर कभी बात करूंगा।"
"जी सर, स्वागत है आपका।"
दोनों अपने अपने काम में बीजी हो जाते हैं।
*****
3
करीब एक महीने बाद।

शील को अपने घर पर चाय पीने के लिए आमन्त्रित किया।
शील के आते ही बातचीत का सिलसिला आरंभ हो गया -
"यार शील, ऑफिस में तो बात करने का मौका ही नहीं मिल पाता है।"

"और बताओ क्या चल रहा है?"
बिना औपचारिकता पूरी किए बिना ही मैंने पूछा -

"बस, सर चल रहा है, ठीक ही है."
शील ने प्रतित्वर में कहा।

"अरे यार! ऑफिस के बाद कुछ और भी करते हो क्या?" मैंने सहज अंदाजा लगते हुए पूछा।
"हां जी सर, मैं ऑफिस के बाद चर्च का काम करता हूं." शील ने जवाब दिया।
"आप ईसाई हैं इसका मतलब?"
मैंने सवाल किया।
"हां सर, मैं तो बचपन से ही चर्च के काम में लगा हूं."

(मुझे उसकी यह बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई कि वह ईसाई बन गया है।)
(चर्च की बात सुनकर मेरे मन में ख्याल आया कि धर्म पर बात ना करके और कुछ बात की जाए। )
विषय बदलने के लिए मैंने शील को कहा -
"और सुनाओ यार.
जी सब ठीक है." उधर से सील ने जवाब दिया.
"अच्छा शील यह बताओ आपके बच्चे कितने हैं?"
"सर, मेरे बच्चे नहीं है."
"अरे! मेरा मतलब बच्चों से तुम्हारी पत्नी वगैरा के बारे में पूछना है."
"जी सर, लेकिन मैंने तो शादी ही नहीं की तो फिर पत्नी और बच्चे का कोई सवाल ही नहीं है."
मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा।

"लेकिन आपकी उम्र तो काफी हो गई है."
"हां सर, 38 का हो गया हूं."
"इतनी लेट? काफी उम्र हो गई है शादी लायक भी नहीं बची है फिर कब शादी करोगे?"
"नहीं सर!
मैं शादी नहीं करूंगा."
मुझे बहुत अजीब सा लगा।
"लेकिन क्यों शील?
अब तो तुम ठीक कमा लेते हो."
"हां जी सर, लेकिन मैंने जैसा कि पहले बताया था कि मैं चर्च के लिए काम करता हूं."
"हां तो, बहुत सारे लोग हैं जो अलग-अलग धर्मों और अलग-अलग जातियों के कल्याण लिए काम करते हैं।
अलग-अलग धर्मों के प्रचार प्रसार के लिए काम करते रहते हैं.
इसका मतलब यह तो नहीं है कि वे सभी शादी नहीं करते हैं."
"लेकिन सर मैंने तय कर लिया है कि मैं शादी नहीं करूंगा. मैं अपना पूरा जीवन चर्च की सेवा में ही लगा दूंगा।"
शील की बातें सुनकर मुझे बड़ा अजीब सा लगा.

"अच्छा फिर बताओ घर में और कौन-कौन है?
सर, एक छोटा भाई है, उसकी शादी कर दी है.
एक बहन है, उसकी शादी पटना में करदी है अब वह वहीं रहती है।"
"और घर में कौन-कौन है?" मैंने पूछा.
"हां सर, दिल्ली में, मैं अपने माता-पिता के साथ ही रहता हूं। छोटा भाई और उसकी पत्नी भी हमारे साथ ही रहते हैं।"

मैं घूम कर फिर दोबारा उसी प्रश्न पर आ जाता हूं। और मैं उसे फिर सवाल करता हूं "आपको तो शादी कर ही लेनी चाहिए थी।"
"सर, इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण भी है।"
कारण? ऐसा क्या कारण है, मैंने उत्सुकता से पूछा।
"आज जो मैं हूं , उच्च शिक्षा प्राप्त की है, पूरा घर अच्छे से रह रहा है। परिवार में सभी लोग खुशी खुशी और सुख पूर्वक रहते हैं, इन सब के पीछे सिर्फ एक ही कारण है और वह है - ईसाई धर्म के लोग।"

"मैं समझा नहीं, जरा विस्तार से बताओ।"
"सर,
मैं बचपन में गांव में ही रहता था। हमारी छोटी सी झोपड़ी थी। उसमें हम सभी लोग रहते थे। बहुत बार ऐसा होता था कि हमें खाने को नहीं मिलता था और पूरा परिवार भूखा सो जाता था।
मैं इसके उपरांत भी पढ़ाई करने के लिए विद्यालय में जाता था तो गांव के और बच्चे हमसे नफरत करते थे और हमें दूर बिठाते थे।
वे हमें पढ़ने के लिए मना करते थे।
वे हमें विद्यालय से भगा देते थे।
बताइए सर, अब आप ही जवाब दीजिए, जब हमारी जाति के कारण हमसे भेदभाव किया जाता था। उसी जाति के कारण लोग हमें प्रताड़ित करते थे और भूखा रहने पर भी हमें पीड़ा देते थे। जाति के कारण पढ़ने भी नहीं दिया जाता था तब हम सब परिवार क्या करते?"

( मन खराब हो गया था उस दिन, ये सारी बातें सुनकर। कितनी मानसिक पीड़ा से गुजरा था शील का परिवार। शील ने अपने जीवन में न केवल मानसिक पीड़ा झेली बल्कि उसके बाल मन पर क्या क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़े होंगे सहज अंदाजा लगाना मुश्किल है। सामाजिक प्रताड़ना व्यक्ति के व्यक्तित्व को संकुचित कर देती है। व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास दब कर रह जाता है। भूख व्यक्ति के शरीर को न केवल कमजोर करती हर बल्कि बीमारियों का घर बना देती है, भूख किसी भी व्यक्ति की मानसिक सोच को कुंद करके जड़ता की ओर ले जाती है, जब व्यक्ति भूखा हो तो उस व्यक्ति का आर्थिक विकास रोटी के चारों तरफ गोल गोल घूमता नजर आता है।)

थोड़ा रुक कर शील ने कहा -

"ऐसी स्थिति में ये ही लोग थे जिनके कारण न केवल हमारा जीवन बचा बल्कि हम लोग पढ़ लिख भी पाए। वरना सर, हम लोगों को किसी धर्म वर्म से क्या लेना देना?"

मैं उसके चेहरे की ओर देखने लगा...(जब यह ईसाई बना तो इसको धर्म नजर नहीं आया? लेकिन भूख कि इस बात से साबित होता है कि रोटी से बड़ा कोई धर्म नहीं और भूख से बड़ा कोई अधर्म नहीं। जो व्यक्ति को रोटी दे दे वही सच्चा धर्म है। रोटी भी दे और वह भी सम्मान के साथ तो दुनिया का श्रेष्ठ धर्म वही धर्म हो जाता है।)

"मेरा तो एक ही धर्म है, जो भूखे को रोटी दे, उसे थोड़ा सम्मान दे।
इसलिए मेरा ईसाई या और कोई धर्म नहीं, बस मेरा एक ही धर्म है, वह है मानवता।"

शील उसी गंभीरता से बोलता जा रहा था।

"बस सर, उसके लिए ही काम करता हूं। मुझे किसी चमत्कार में विश्वास नहीं है। मैं किसी की पूजा नहीं करता। कुछ लोगों के साथ मिलकर मजबूर लोगों कि मदद के लिए ही कुछ करने का प्रयास करते हैं।
मैं तो भूख और जातिगत भेदभाव के दंश को झेल कर बड़ा हुआ हूं।"

अनेक भावों का ज्वार सा अा गया था, शील के लगातार बोलते बोलते।
"मैंने इन लोगों के लिए अपने को समर्पित कर दिया है। मेरे व्यक्तिगत जीवन में, मेरे लिए कुछ नहीं बचा है।"
मायूस होते हुए शील बोला -
"अब बताओ सर, जब मेरा अपना कुछ है ही नहीं तो मैं शादी किसके लिए करूं?
अगर मैं कर भी लूं, न जाने कितने ही शील कुमार अपनी जिंदगी की जंग में कब हार जाएंगे, और उनकी जिंदगी को रोशन करने कोई आएगा ही जरूरी तो नहीं।"
शील लगातार बोले जा रहा था -
"अपने लिए बच्चे पैदा कर उनको पालने के चक्कर में सैंकड़ों बच्चे लावारिस हो जाएंगे या फिर जाति की दहकती भट्टी में झोंक दिए जाएंगे।"
इस तरह लंबी सांस लेते हुए शील बोला -
"इसलिए मैंने शादी नहीं की, सर...."

फिर वही लंबा सन्नाटा....सदियों तक रहने वाला सन्नाटा.....।

सन्नाटे के उस तूफान को मैं आज महसूस कर पाया। आज समझ पाया कि चुपचाप रहने वाले शील के दिल में कितने भयंकर तूफानों ने हलचल मचा रखी है।


इसलिए ही शील का व्यवहार भी तूफानों के गुजर जाने के बाद छा जाने वाली शांति की भांति ही शांत था।

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यहां मेरी बहन होती?
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मिष्टी का दिल्ली यूनिवर्सिटी की ख्याति प्राप्त महिला महाविद्यालय में पहला दिन था। आत्म विश्वास से लबरेज मिष्टी को आज का पहला दिन बहुत अच्छा लग रहा था।

अपने कॉलेज को देख कर मिष्टी बहुत खुश हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी वायसरॉय का घर हो। सफेद रंग की चमचमाती साफ सुथरी बिल्डिंग, गेट से घुसते ही दो हरे भरे और सुंदर लॉन, सैंकड़ों गमले, गमलों में लगे अलग अलग तरह के पौधे कॉलेज की सुंदरता में चार चांद लग रहे थे।
यह कॉलेज का मेन एडमिन ब्लॉक था।
थोड़ा घूम कर देखा तो वहां क्लास रूम के लिए अलग अलग इमारतें थी। एडमिन ब्लॉक के पीछे बड़े बड़े वृक्ष कॉलेज को हरा भरा बनाए हुए थे, साथ ही तरह तरह के पक्षियों की चहचहाहट वन जैसे पार्क में प्राकृतिक संगीत सा कलरव घोल रहे थे, सघन वृक्षों से वातावरण भी बहुत शुद्ध था, हवा भी शुद्ध जो दिल्ली जैसे शहर में कल्पना सी प्रतीत होती है। पीछे जाकर देखा तो कॉलेज का विशाल ग्राउंड था। कॉलेज एक बहुत बड़े कैंपस में स्थित था।
उसी सुंदर वन के बीच में ही, कॉलेज परिसर में देश के दूर दराज इलाकों से तथा कुछ विदेशों से प्रवेश पाई लड़कियों के लिए हॉस्टल भी था।

मैंने अपनी क्लासरूम जानने के लिए राजनीति विज्ञान की फैकल्टी में जाकर अपनी कक्षा इंचार्ज मैडम से क्लास रूम पूछा और चल दी अपने क्लास रूम में।

2
क्लास रूम में घुसते ही देखा -
सभी छात्राएं अपरिचित थी। लेकिन 4-5 लड़कियों का एक ग्रुप सा पहले ही बन गया था। सभी लड़कियों ने फैशनेबल कपड़े पहने थे। सभी लड़कियां इंग्लिश में ही वार्तालाप कर रही थी। जैसे ही मिष्टी ने क्लास में नजर दौड़ाई तो उसकी नजर उस ग्रुप पर पड़ी। और मिष्टी की नजर ग्रुप से मिली, उस ग्रुप की सभी लड़कियों ने एकसाथ हाय कह कर हाथ हिलाया, मिष्टी भी हाय बोल कर हाथ हिलाती हुई उनके पास चली गई। उन्होंने मिष्टी को बैठने का इशारा किया।
मिष्टी को भी लगा कि अच्छे घर की लड़कियां हैं, सभी बड़े घर की लग रहीं थीं।
मिष्टी भी दिल्ली के बहुत नामचीन स्कूल में पढ़ी थी। अंग्रेजी में इंट्रो हुआ, हाय आई एम् मिष्टी, आई एम् फोर्टियन।
सभी लड़कियों के मुंह से एकसाथ निकला क्या फोर्टियन ?
अरे यार, यू नो दिस इज वेरी नाइस अं