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एक गधे की
बहूत पहले मैंने एक किस्सा पड़ा था उस किस्से की मुख्य शीर्षक था गधा चला गंधर्व नगर । मैं बाज़ार जा रहा था मुझको रास्ते में भीड़ के साथ चल रहा एक गधा दिखाई दिया तो मैं अवाक रह गया मैं सोचने लगा देखो इस गधे की किस्मत अच्छे खानदान में पैदा तो हो गया मगर बेचारा मूर्खता को क्या करता वह तो चोली दामन के साथ की तरह उससे चिपके हुए थे एक बात और गधे को कितना ही चलाया जाए कितना ही दौड़ाया जाए कितने ही बागीचे हरे भरे मैदान दिखाएं जाए क्या उसकी सोच कुछ बदल सकती है सिवा खाने के और अंधे की तरह दौड़ने के
तो गधा सारी दुनियां का भ्रमण करने निकल पड़ा उसके साथ उसी की तरह सोचने वाले कुछ और गधे भी निकल पड़े गधे की सोच में जो समझ थी वह मुर्ख की तरह ही थी जो कि उसकी जन्मजात नींव में भरी पड़ी थी वह कितने भी रंग लगा कर अपने आप को बदल लें...