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बुरा न मानो होली है
बुरा न मानो होली है---- एक गोष्ठी में सभा के मुख्य वक्ता ने अपना लंबा भाषण एक सवाल से कुछ इसतरह से शुरू किया -- मैं साहित्य क्यों लिखता हूँ ? और फिर इसके जवाब में वह आँखें मुंदकर घंटों धाराप्रवाह बोलते चले गये । वह बोले-- 'तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है-स्वांत: सुखाय रघुनाथगाथा । मुझे भी लगता है कि साहित्य का मर्म यही आंतरिक आनंद है अर्थात् अपने अंत:करण के सौंदर्य को महसूस करना । इसका मतलब यह है कि साहित्य सबसे पहले अपने लिए हीं लिखा जाता है । अब ये अलग बात है कि इसकी सुगंध एक फूल की तरह आप-से-आप फैलने लगती है । इस संसार में जो कुछ भी सुंदर है-वह मूल रूप में साहित्य है । साहित्य इस लिहाज से अंतरात्मा का शुद्धिकरण है । इसलिए एक दृष्टि से साहित्य मेरे लिए एक आध्यात्मिक कर्म भी है , न सिर्फ मेरे लिए अपितु आप सब के लिए भी -- जैसे प्रकृति जीवन के लिए होती है ,वैसे हीं साहित्य मनुष्य के लिए होता है । हर हाल में मनुष्यता बची रहे ,यही इसका अभीष्ट है । और अपने शाब्दिक अर्थ में यह तो सभी जानते हैं कि जिसमें सबका हित हो, वही साहित्य है ।'..पूरे एक घंटे बाद भाषण जब खत्म हुआ ,तो देखा गया कि सभी कुर्सियां खाली हैं । सिर्फ दो हीं श्रोता बच गये थे ,वे भी ऊँघ रहे थे । सभा के अंत में सभापति ने उन बचे हुए दो श्रोताओं को अपना आभार प्रकट किया , तो उन्होंने जवाब दिया कि वे लाइट और जेनरेटरवाले हैं । बुरा न मानो होली है ।