...

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भूत हूँ मैं...
मालूम है मुझे ...
मेरा भूत होना
तुम्हें नहीं सुहाता है
मेरा यूँ बरगद पर लटकना भी
तुम्हे बहुत परेशान करता है...
रास नहीं आता है !

मरे जा रहे हो ,
मेरी मुक्ति ढूंढने में
कभी कौओं को
खाना खिला रहे हो
तो कहीं पिंडदान को
गंगा घाट जा रहे हो
कभी सोरौंजी के
पंडों को चढ़ावा चढ़ाकर,
मेरी गाढ़ी मेहनत की कमाई को
ठिकाने लगा रहे हो .

किसके लिए...!
समझों !
अब मैं ,तुम्हारा बाप नहीं हूँ...
तुम्हारे बाप के चोले से निकल कर
पूरी तरह , उन्मुक्त हूँ , आबाद हूँ ......
एक खुशमिजाज भूत हूँ
मुक्ति की ख्वाहिश , क्यूँ होगी
मैं तो पहले ही आजाद हूँ ...
बेहतर है कि ,अब तुम मुझे
भूत ही रहने दो .

पूरी ज़िंदगी तो तुम लोगों के
हिसाब से ही जीया था  ,
तुम्हारे हिसाब से ही
पहना ओढ़ा था ,
खाया और पीया था
अब मरकर अपने
हिसाब से जीना चाहता हूँ
ताजिंदगी जी लिया
तुम्हारे बनाए
सामाजिक दायरों के
बंधनों में बंधकर .
अब बंधनमुक्त उड़ान
उड़ना चाहता हूँ
मेरी उन्मुक्त उड़ान में
व्यवधान उत्पन्न मत करो...
मैं भूत होकर खुश हूँ .
मुझे भूत ही रहने दो

मैं भूत हूँ पूर्ण आत्मा ,शुद्ध रूप में
और तुम.....देह को लादे हुए ...
अपनी लालसाओं का बोझ ढोते ....
मन के संस्कार ,विकारों से
मिलावटी हुए इंसान .
कुछ समय पहले तक 
मैं भी तुम्हारे जेसा ही था ,
देह का बोझ घसीटता
एक मामूली सा इंसान....
पर अब ,जब से
आजाद होकर लटका हूँ ,
बरगद की मोटी
शाख पर ,तब से....
बड़ा तरस आता है
तुम नादानों पर...

नाशवान देह को ,
जर्जर हाल में भी
त्यागने को तैयार नहीं  ..
घिसे जा रहे हो ....
जीर्ण होती देह को....
अजीर्ण आत्मा के मलिन
होने का भी मलाल नहीं ....
खैर ,मुझे क्या ,जुते रहो ,
पर मुझे बख्श दो ,
अब और पालना
चाहता ये जंजाल नहीं
मैं तो मुक्ति की भी
लालसा नहीं रखता,
क्योंकि फिर से ,
इस बंधन मे फंसना
कोई बहुत बढ़िया खयाल नहीं.

तुम मेरी मुक्ति की
चिंता में हो रहे हो पस्त ,
और मैं तुम लोगों को
देह की गुलामी करते
देखकर हूँ चिंताग्रस्त
शायद ,यही वह माया है ,
जिससे अज्ञानी मानव है त्रस्त ....
जबकि मैं ,अब इस गुलामी से
निकलकर हो रहा हूँ मस्त

हे प्रभू ..!
क्योंकि ये नादान इंसान
नहीं जानते भूत होने के सुख ...!
अज्ञान में पड़े
मेरी भूत योनि को
कष्ट पहुँचा रहे हैं !
आप इनकी बातों में ना आना
मैं भूत ...बहुत अच्छा हूँ ,
मुझे अब फिर से
इंसान मत बनाना

परेशानी क्या है इनकी
मुझे समझ ना आई है
मैंने तो कभी इनकी
जमीन नहीं दबाई है
एक रोटी तक मैंने
इनकी  कभी ना खाई है,....
जिन्दा तो फिर भी , करता था
भूत बनकर तो इन्हें ...
कभी टोक ना लगाई है !
ना तो इनकी भैंस खोली...
ना भगाई इनकी लुगाई है
फिर क्यूँ मेरे पीछे पड़े ,
ऐसी क्या आफत आई है

अरे मेरा पीछा छोड़ो ,
अपने घिसे हुए
चोले के लिए ही दौडो
मैं तुम्हारा रस्ता
कभी काटता नहीं ,
मुझे भी चैन की
बंसी बजाने दो..
भूत हूँ और भूत ही अच्छा हूँ मैं...
तुम मुझे भूत ही रहने दो

#वरुणपाश

© बदनाम कलमकार