कलर वाला....।
काम के बोझ से थका चेहरा, बढती उम्र से झुरिया चेहरे पे साफ-साफ दिखाई दे रही थी | चेहरे पे वो मासुमियत और भोलापन शायद ज़िन्दगी के तजुर्बो से मिला था । अपने काम में मसघुल बड़े ही ध्यान से मेरे रूम की खिड़की पे रंग चढ़ा रहे थे। कुछ ऐसा था वो कलर वाला।
"भैया आपने ये रूम कितने में किराये पे लिया" उन्होने बड़े ही शांत भाव से मुझसे पूछा। मैं अपने बेड पे लेता हुआ गेम खेल रहा था, उनकी तरफ न देखते हुए ऊपरी मन से उनके सवाल का जवाब दे दिया। फिर उन्होंने कुछ पूछना शुरू किया तो मैंने लैपटॉप बंद किया और उनसे बाते करने लग गया। बातों ही बातों में मैंने उनके काम के बारे में जानना शुरू किया और बात उनके परिवार तक पहुँच गयी। थोड़ी देर उनके जवाब का इंतज़ार किया । कुछ न बोलते, मुझे नझर अन्दाज करते हुए वो रूम से बाहर चले गए । जैसे किसी ने पुराने ज़ख्मो की नब्ज़ पकड़ ली हो उनकी । शायद मैं कुछ गलत पूछ बेठा था उनसे पर पता नहीं क्यों मन ही मन में जिघ्यासा हो रही थी मेरे सवाल का जवाब जानने की। पर जब जवाब देने वाला ही वहा नहीं था तो थोड़ी देर के इंतज़ार बाद मैं अपने काम में वापस लग गया।
कुछ बाते ऐसी होती हैं जिन्हें याद करने से पुराने झखम हरे हो जाते हैं, ऐसा लगने लगता हैं मानो कल ही की तो बात थी। उस वक़्त भूल जाते हैं की उन बातों को बीते बरसों हो गए। जाने-अनजाने में शायद मैं ऐसे ही किसी बीते बरस की धुंदलि यादों को आँखों के सामने ले आया था। उन सेहमि भिनी यादों से नम आँखों को साफ करने बाहर चले गए थे अखिलेश भाई।
यही नाम था उनका "अखिलेश"। उत्तरप्रदेश के रहने वाले अखिलेश भाई यहाँ जयपुर अपनी पत्नी को हॉस्पिटल चेकउप के लिए लेके आये थे । उनका छोटा भाई पहले से यहाँ पे काम करता था। धीरे-धीरे उन्होंने भी सोचा जब दो वक़्त की रोटी यहाँ जयपुर में मिल सकती है तो क्यों फालतू में मुम्बई की ज़िन्दगी जिए। ऐसा सुना हैं की मुम्बई बड़ी फ़ास्ट हैं।
कहा जाता हैं की "मन के जीते जीत, मन के हरे हार"। इस बार मैं हार रहा था। मेरे लिए बिलकुल भी जरूरी नहीं था अखिलेश का जवाब सुनना पर जब मन ही साथ ना दे तो क्या करे। थोड़ी देर बाद गेम से मन भर गया और वापस उसी सवाल पे जाके अटक गया। अपने बिस्तर से उठा और बाहर देखा तो वहा पे उनकी साइकिल नहीं थी। रूम में आके पानी को पतीले में लेके धीमी आँष् पे गर्म करने रख दिया। भूख लग रही थी तो सोचा मेगी बना लू। इतनी ही देर में मेरे रूम का दरवाजा किसी ने नॉक किया। खोल के देखा तो अखिलेश सामने खड़े थे। मैंने गेट खोल और अंदर आके बोले "लो साबह चाय पियो" ।
"साबह" ज़िन्दगी में पहली बार किसी ने इस तरह पुकारा था मुझे।
हाथ में चाय लिए हम दोनों बैठ गए। अचानक नज़रे कही ओर टिका के कुछ बोलना शुरू किया उन्होंने। ध्यान देने पे पता चला की मैंने जो पूछा था उसके बारे में बता रहे हैं वो। चाय को जल्दी-जल्दी ख़तम करते हुए पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान उनकी बातों में लग गया।
"सात साल पहले की बात हैं साहब। मैं बम्बई में कमाता था। बीवी बच्चे गाँव में ही रहते थे। जितना कमाता था उससे रोजमर्रा की जरूरते पूरी हो जाती थी।
सर्दियों का वक़्त था, नया साल शूरू हो गया था। अब साहब हमारे लिए क्या नया क्या पुराना, सब एक से हैं। पर बच्चों को ख़ुशी होती थी इसलिए सोचा गाँव हो के आउ एक बार। पतंगों का मौसम था। साहब हमने तो अपने बचपन में कभी ये सब उड़ाई नी, घर की ज़िम्मेदारी जो सर पे थी। पर अपना बचपन अपने बच्चों में दीखता था मुझे। उनकी हर एक जरूरत पूरी करने के लिए जितना हो सकता था उतनी मेहनत करता था। पर किस्मत का लिखा कौन....."
इतना कह के चुप हो गए। लाख कोशिशो के बाद भी आँख को नम होते रोक न पाये वो। कहते हैं कलम की स्याही को शब्दों की जरूरत होती है खुद को बयां करने को, ऎसे ही किसी कागज पे गिर जाये तो धब्बा बन जाती हैं। पर पलकों के आंशुओं को जरूरत नहीं खुद को बयां करने की। वो अपने आप में सब कुछ समाये होते हैं।
ऐसा ही कुछ माहोल था उस वक़्त मेरे सामने। वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए कुछ ना कहके चुप रहना ही सही समझा। आधी-अधूरी बातों से उन्होंने पूरी बात कह डाली। खुद की या पता नी किसी ओर की लपरवाई थी या किस्मत का लिखा, जो भी था उनके लिए वो ब्लैक डे था। उनके आँखों का तारा उनके सामने से औझल हो कर इस भीड़ से परे एकांत में समा गया था।
पतंग उड़ाते-उड़ाते उनके बेटे को ध्यान ही नी रहा कब उसका कदम ज़िन्दगी की सीमा को लाँघ चुका था। पलक झपकते वो सब को छोड़ चला था। वक़्त के छोटे से हिस्से में वो ज़मीन से आ टकरा गया था।
"क्या करे साहब.....बस यही था मेरा परिवार। वक़्त ने धीरे-धीरे सब बदल दिया पर वो यादें आज भी उतनी ही ताज़ा हैं। ठीक साहब मैं चलता हूँ, मेरी बेटी इंतज़ार कर रही होगी। मुझे देखे बिना खाना नी खाती वो। आप पढ़ाई करके वो सब बन जाओ जो बनना चाहते हो।"
इतना कह कर कलर, ब्रश उठा के साइकिल पे सवार अपने घर की तरफ चल दिए। ओर मैं अपने रूम में बैठे इस सब को समझने की कोशिश किये जा रहा था। और इस सब को एक पेपर पर लिखे जा रहा था।
"भैया आपने ये रूम कितने में किराये पे लिया" उन्होने बड़े ही शांत भाव से मुझसे पूछा। मैं अपने बेड पे लेता हुआ गेम खेल रहा था, उनकी तरफ न देखते हुए ऊपरी मन से उनके सवाल का जवाब दे दिया। फिर उन्होंने कुछ पूछना शुरू किया तो मैंने लैपटॉप बंद किया और उनसे बाते करने लग गया। बातों ही बातों में मैंने उनके काम के बारे में जानना शुरू किया और बात उनके परिवार तक पहुँच गयी। थोड़ी देर उनके जवाब का इंतज़ार किया । कुछ न बोलते, मुझे नझर अन्दाज करते हुए वो रूम से बाहर चले गए । जैसे किसी ने पुराने ज़ख्मो की नब्ज़ पकड़ ली हो उनकी । शायद मैं कुछ गलत पूछ बेठा था उनसे पर पता नहीं क्यों मन ही मन में जिघ्यासा हो रही थी मेरे सवाल का जवाब जानने की। पर जब जवाब देने वाला ही वहा नहीं था तो थोड़ी देर के इंतज़ार बाद मैं अपने काम में वापस लग गया।
कुछ बाते ऐसी होती हैं जिन्हें याद करने से पुराने झखम हरे हो जाते हैं, ऐसा लगने लगता हैं मानो कल ही की तो बात थी। उस वक़्त भूल जाते हैं की उन बातों को बीते बरसों हो गए। जाने-अनजाने में शायद मैं ऐसे ही किसी बीते बरस की धुंदलि यादों को आँखों के सामने ले आया था। उन सेहमि भिनी यादों से नम आँखों को साफ करने बाहर चले गए थे अखिलेश भाई।
यही नाम था उनका "अखिलेश"। उत्तरप्रदेश के रहने वाले अखिलेश भाई यहाँ जयपुर अपनी पत्नी को हॉस्पिटल चेकउप के लिए लेके आये थे । उनका छोटा भाई पहले से यहाँ पे काम करता था। धीरे-धीरे उन्होंने भी सोचा जब दो वक़्त की रोटी यहाँ जयपुर में मिल सकती है तो क्यों फालतू में मुम्बई की ज़िन्दगी जिए। ऐसा सुना हैं की मुम्बई बड़ी फ़ास्ट हैं।
कहा जाता हैं की "मन के जीते जीत, मन के हरे हार"। इस बार मैं हार रहा था। मेरे लिए बिलकुल भी जरूरी नहीं था अखिलेश का जवाब सुनना पर जब मन ही साथ ना दे तो क्या करे। थोड़ी देर बाद गेम से मन भर गया और वापस उसी सवाल पे जाके अटक गया। अपने बिस्तर से उठा और बाहर देखा तो वहा पे उनकी साइकिल नहीं थी। रूम में आके पानी को पतीले में लेके धीमी आँष् पे गर्म करने रख दिया। भूख लग रही थी तो सोचा मेगी बना लू। इतनी ही देर में मेरे रूम का दरवाजा किसी ने नॉक किया। खोल के देखा तो अखिलेश सामने खड़े थे। मैंने गेट खोल और अंदर आके बोले "लो साबह चाय पियो" ।
"साबह" ज़िन्दगी में पहली बार किसी ने इस तरह पुकारा था मुझे।
हाथ में चाय लिए हम दोनों बैठ गए। अचानक नज़रे कही ओर टिका के कुछ बोलना शुरू किया उन्होंने। ध्यान देने पे पता चला की मैंने जो पूछा था उसके बारे में बता रहे हैं वो। चाय को जल्दी-जल्दी ख़तम करते हुए पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान उनकी बातों में लग गया।
"सात साल पहले की बात हैं साहब। मैं बम्बई में कमाता था। बीवी बच्चे गाँव में ही रहते थे। जितना कमाता था उससे रोजमर्रा की जरूरते पूरी हो जाती थी।
सर्दियों का वक़्त था, नया साल शूरू हो गया था। अब साहब हमारे लिए क्या नया क्या पुराना, सब एक से हैं। पर बच्चों को ख़ुशी होती थी इसलिए सोचा गाँव हो के आउ एक बार। पतंगों का मौसम था। साहब हमने तो अपने बचपन में कभी ये सब उड़ाई नी, घर की ज़िम्मेदारी जो सर पे थी। पर अपना बचपन अपने बच्चों में दीखता था मुझे। उनकी हर एक जरूरत पूरी करने के लिए जितना हो सकता था उतनी मेहनत करता था। पर किस्मत का लिखा कौन....."
इतना कह के चुप हो गए। लाख कोशिशो के बाद भी आँख को नम होते रोक न पाये वो। कहते हैं कलम की स्याही को शब्दों की जरूरत होती है खुद को बयां करने को, ऎसे ही किसी कागज पे गिर जाये तो धब्बा बन जाती हैं। पर पलकों के आंशुओं को जरूरत नहीं खुद को बयां करने की। वो अपने आप में सब कुछ समाये होते हैं।
ऐसा ही कुछ माहोल था उस वक़्त मेरे सामने। वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए कुछ ना कहके चुप रहना ही सही समझा। आधी-अधूरी बातों से उन्होंने पूरी बात कह डाली। खुद की या पता नी किसी ओर की लपरवाई थी या किस्मत का लिखा, जो भी था उनके लिए वो ब्लैक डे था। उनके आँखों का तारा उनके सामने से औझल हो कर इस भीड़ से परे एकांत में समा गया था।
पतंग उड़ाते-उड़ाते उनके बेटे को ध्यान ही नी रहा कब उसका कदम ज़िन्दगी की सीमा को लाँघ चुका था। पलक झपकते वो सब को छोड़ चला था। वक़्त के छोटे से हिस्से में वो ज़मीन से आ टकरा गया था।
"क्या करे साहब.....बस यही था मेरा परिवार। वक़्त ने धीरे-धीरे सब बदल दिया पर वो यादें आज भी उतनी ही ताज़ा हैं। ठीक साहब मैं चलता हूँ, मेरी बेटी इंतज़ार कर रही होगी। मुझे देखे बिना खाना नी खाती वो। आप पढ़ाई करके वो सब बन जाओ जो बनना चाहते हो।"
इतना कह कर कलर, ब्रश उठा के साइकिल पे सवार अपने घर की तरफ चल दिए। ओर मैं अपने रूम में बैठे इस सब को समझने की कोशिश किये जा रहा था। और इस सब को एक पेपर पर लिखे जा रहा था।
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