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प्यारी वैदेही (भाग-1)
प्यारी वैदेही....
समझ ही नहीं आता तुम्हारी ये नादानीयाँ कम क्यूँ नहीं होती, जानती हो ना तुम अम्मा को तुम्हारा सजना सँवरना ज़रा भी नहीं भाता, फिर भी ना जाने क्यूँ उनसे छिप कर पैरों में महावर लगाया करती हो, और बाद में अपनी ऊंचाई से अधिक लंबी फ्रॉक पहन उसके भीतर ही छिपाती जाती हो अपने महावर लगे पांवो को, दोपहर में जब सो जाया करते हैं सब,
तुम किताबों की अलमारी में सबसे पीछे छिपा कर रखे, अपने आईने को निकाल बैठ जाया करती हो चौखट पर, खुद को अपलक निहारते हुए, तुम्हारे जरूरी किताबों के लिए माँ के द्वारा दिये पैसों से तुम खरीद लाया करती हो अपनी सज्जा का समान, कभी लाली तो, कभी नए महक वाला पाउडर, तो कभी नाखूनों के लिए खूबसूरत रंग, खैर ये सब तो फिर भी छिप जाया करते हैं, तुम्हारी प्राकृतिक खूबसूरती के पीछे, पर जब तुम आईने में खुद को देख अपने दोनों भवों के मध्य छोटी सी बिंदी अंकित करती हो,
तब तुम्हें अपनी खिड़की से देख मुस्कुराता हूँ मैं, मुझे मालूम है तुम हर दोपहर चौखट पर क्यूँ आ बैठती हो, खबर है तुम्हें भी तुम्हारी इन नादानियों को एक पागल एकटक निहार रहा है, किसी कोने से,
तुम्हें मालूम है? तुम्हारी इन हरक़तों को हर रोज लिखता हूँ, अपने कापियों से पन्ने फाड़-फाड़ कर, और सहेजता जाता हूँ, तुम्हारी खूबसूरती को इन कोरे कागजों पर, जाने कैसे बचाती हो तुम अपनी अम्मा की पारखी नज़रों से अपनी बिंदी, अपने नाखूनों पर सज़ा वो खूबसूरत रंग,
कभी सोचा है तुमने उन्हें तुम्हारा सँवरना क्यों नहीं भाता, क्यों साधारण सी काया में देखना पसंद करती हैं वो तुम्हें, मैं बताऊँ, वो नहीं चाहती किसी की नज़र लगे तुम्हारी प्यारी सी सूरत को, उनकी वैदेही हमेशा मुस्कुराती रहे, सच है तुम अपने ताम्बाई रंग में जितना चमकती हो, उतना तो कोई हीरोइन भी नहीं चमकती ढेरो लीपा पोती के बाद, तुम यूँ ही रहा करो ना साधारण सी, बस वो बिंदी लगाया करो, मैं अपनी संगिनी को हमेशा एक छोटी सी बिंदी लगाए हुए देखना चाहता हूँ ।

तुम्हारी नादानियों का दीवाना-मैं
© अल्फ़ाज़ ही आवाज़ है (Raj)

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