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प्रेम
प्रेम तो परिभाषाओं से परे हैं
परिभाषा तो परिधि है
प्रेम परिधि में कहां है
यह तो परिधि में आ ही नहीं सकता
यह तो स्वतंत्र है
जैसे हवा, खुशबू,पानी,
कायनात में धुला हुआ
उन्मुक्त ,स्वछंद
इतना खूबसूरत है कि
इसका वर्णन ही नहीं कर सकते
इतना पावन है की
भावनाओं में समेट ही नहीं सकते
इसका एहसास ही
शक्ति देता है
कोई साधारण इसे समझ ही नहीं सकता
वह तो मीरा पर भी सवाल उठा सकता है
पर प्रेम इस बंधन में पड़ता ही कहां है
जब कन्हैया से प्रेम होती है तो राधा होती है
जब कृष्ण से प्रेम होती है तो रुकमणी होती है
और जहां प्रेम कायनात में हो तो मीरा होती है
न तो राधा ,कृष्ण से प्रेम की कभी
ना तो रुकमणी ,कान्हा को जानती थी
एक मीरा ही थी जिसने
सिर्फ प्रेम किया
सिर्फ प्रेम
बगैर बंधन के
स्वतंत्र , स्वछंद ,उन्मुक्त।
यह तो किसी को हक ही नहीं देता
कि कोई परखे
इसे कहां किसी की पड़ी है
कोई बंदीसें नहीं ,इसकी
न तो कोई सीमा है
न तो ये किसी पर हक रखता है
न किसी के बंधन में होता है
यह तो बस प्रेम है
भीषण गृष्म में एक सुखद ठंडी हवा
या गुलमोहर के बगीचे की सुंदरता
ये भी इंद्रिय बंधन के परिधि में आ जाते हैं
पर प्रेम कहां
यह तो किसी से भी हो सकता है
पत्थर से भी।
जो निर्जीव को भी साकार कर दे
जहां निराकार आकार ले ले
प्रिय का प्रियतमा का,
या कहें इन सबसे उपर कहीं
एक प्रेम ही है
जो जिंदा है
जो प्रमाण है जिंदा होने का
यह तो मूल स्वभाव में है
सबके, हम सब के
बस भूल गए हैं
इसे ।






© geetanjali