...

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कागज के फूल..!!
सुनो ...

जो प्रेम कल्पनाओं में गढ़ जाता है...
उसका मुकाबला इस दुनिया का
कोई" प्रेम नही कर सकता
ये बिलकुल वैसा है
मानो फूल तो ""कागज के हो..
पर इसपर इत्र तुम्हारी मर्जी का हो..!!
खुशबू तुम्हारी मर्जी की हो..!!

और अब ...

सब मेरी मर्जी का है...
प्रेम भी तुम्हारी" कल्पना भी
वो "स्मृतियां भी और
उस "फूल पर लगे "इत्र की खुशबू भी..!!

जानते हो, इस फूल की विशेषता क्या है..??

वो अब कभी मुरझाएगा नही .
और ना मेरी किसी "किताब में मिलेगा...
वो सैदैव मिलेगा
उस ""गुलदान में जैसे का वैसा..!!
बिलकुल मेरे" प्रेम की तरह..!!!

सच ही तो कहता था वो
..प्रेम को छोड़ने का कोई विकल्प नहीं होता..!!
जब प्रेम अपनी अंतिम सांसे गिनता है तब ही तो उसमे अधिक प्राण फूंके जाते है..!!
जिस प्रेम को भगवान के समान रोज पूजा कर के घनिष्ठता की ओर बढ़ाना चाहिए...
उसे हमेशा अंतिम क्षण में ही पूजा जाता है....!!!
और फिर
रह जाता है वो प्रेम जो "भौतिक सुख से परे हो जाता है..

व्याकुल हर समय का मन...
होठों पर पड़ी सिलवटे...
फीका शृंगार...
बिगड़ती चाल...
सुर्ख हथेली...
वो सूजी सी आंखों में ...
फैला सा काजल...
स्पर्शहीन आभास...
जीवन जैसे मुर्गतृष्ण...
मानो कोई रेगिस्तान..!!!

हम प्रेम को "छोड़कर भी प्रेम से "विरक्त हो ही नही पाते..!!!

© A.subhash

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