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हमारी फर्स्ट डेट
उस रोज़ मैंने उसे पहली बार देखा। वैसे तो हम हररोज कोलेज में मिलते थे लेकिन उस दिन तो वो कुछ अलग ही लग रही थी। उसने न तो कोई भारी-लंबी सारी पहन रखी थी न ही सिर पर कोई मुकुट था, फिर भी न जाने क्यों वो आज किसी प्रांत की राजकुमारी लग रही थी! उसे देखकर तो मेरी औकात ने भी बड़ी बेशर्म होकर मुझसे पूछ लिया कि, क्या यही है वो? यक़ीनन, आज वो कोई और ही थी।

हमारी नजरें तो उसके ठीक साढ़े बारह कदमों के बाद मिली; तब तक तो वो अपने आप में ही खोई हुई थी। इन साढ़े बारह कदमों में उसने अपनी ड्रेस की सिलवटों में छुपी करवटों को छंछेडा, अपने पल्लू को तीसरी-चौथी बार कमर पे बांधा होगा क्योंकि शायद उसने अपने होंठ दबा कर गाली भी दे दी थी। वो अपनी लट कान के पीछे रखने ही वाली थी कि उसके कंगन की लयतरंग ने मुझे अपनी और खींच लिया। इतनी खूबसूरती मुझे झेलने की आदत नहीं थी, शायद इसीलिए मैं उसके चेहरे को देखने से डर रहा था। और इसीलिए मैं उसके साढ़े बारह कदमों को अपनी आंखों से गीन पाया।

उसके कदम रुक गए। मुझे पता चल गया कि वो मेरे कुछ बोलने की प्रतीक्षा कर रही हैं लेकिन मेरी सांसें चल रही थी वही बहोत था; ओलरेडी मेरा दिल दो बार धड़कना भूल चुका था।

मैं बाईक पर उसे बिना देखे ही बैठ गया। हेलमेट पहन कर बाईक स्टार्ट की। इसी दौरान वो भी मेरे कंधे के सहारे पीछली सीट पर बैठ गई। मुझे पता ही नहीं था कि हम कहां जा रहे हैं, बस इतना ही पता था कि हम कहीं जा रहे हैं। रेस्टोरेंट कुछ दसेक किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन वो आधा घंटा कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। रेस्टोरेंट में हमारा टेबल पहले से ही बुक्ड था इसलिए हम अपने रिजर्वेशन नेम प्लेटवाले टेबल पर जा कर बैठ गए।

अभी भी मैंने उसके चहरे की और गुस्ताखी नहीं की थी, मैंने अपना सारा ध्यान मेन्यू में डाल रखा था, प्रोपर ढोंग ही था लेकिन कोई चारा भी तो नहीं था।

ओर्डर देने के बाद २० मिनिट तक प्रतीक्षा करने के लिए लिखा हुआ था। अब तो पंजाबी फूड़ का चाईनीज स्टार्टर वाला ओर्डर भी जा चुका था और बीस मिनट बिना बात कीए नहीं रहा जा सकता था। तो मैंने अपनी पूरी हिम्मत जुटा कर उसकी और नजरें थामी। उसकी नजरें भी वहीं पे रुक गई। अभी बातें करने की जरूरत हमारे शब्दों को नहीं थी; आंखों से ही सब कुछ बोल-सुन रहे थे, सब कुछ। इतने में कमबख्त स्टार्टर भी आ गया। वैसे उन रेस्टोरेंट वालों की तो गलती नहीं थी, हम खुद ही एक-दूसरे की आंखों में खो गए थे। पता नहीं वो वेईटर कब से "एक्सक्युझ मी" चिल्ला रहा होगा, वो तो उसने गुस्से में बोउल को टेबल पर पटका तब मैं थोड़ा होश में आया। जैसे तैसे करके मैंने अपना पेट तो भर लिया लेकिन आंखें...? वो तो अभी भी उसके दीदार के लिए अतृप्त है।

क्योंकि मैं भी अभी स्टूडेंट ही था, उसने भी आधा बिल शेयर किया। अब हम रिटर्न जाने के लिए रवाना हुए। लेकिन इस बार हमारे बीच चूपी नहीं थी, बातों का सिलसिला था; उसकी बातों का, मैं तो अभी भी उसके सौन्दर्य में मोहित था, खामोश था। पता नहीं वो क्या बोल रही थी क्योंकि मैं उसके शब्दों में नहीं, आवाज़ में खो चुका था।

इतने में उसकी होस्टेल का नुक्कड़ आ गया; वहीं जहां उसने साढ़े बारह कदम लिए थे।