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मृत्यु का शंखनाद
शोर और शोर के बीच गहरा पसरा यह सन्नाटा.. ऐसा सन्नाटा जो मेरे अंतर्मन में बढ़ता जा रहा है। मुझे अब चारों ओर अंधेरा नज़र आ रहा है। नज़र आ रहा है राख का उड़ना, लोगों की चीख, और उस चीख को चीरती हुई धीमी होती मेरे हृदय की गति। यूँ लगता है जैसे हर हिचकी में मेरी देह शीतल हो रही है। मैं मृत्यु का शंखनाद सुन रही हूँ.. मेरी ही मृत्यु का।
मैं आईने में देखती हूँ तो मुझे मेरी सूरत नहीं दिखती.. श्मशान दिखता है।
एक ऐसा शमशान जहाँ मेरी उम्मीदें, सपने, ख़्वाहिशें, प्रेम, सब कुछ चिता पर लेटा जल रहा है।
एक धुँआ उठ रहा है मेरे चारों ओर जो इतना गहरा है कि मैं उसके आर-पार नहीं देख पा रही।
मैं भयभीत हूँ.. स्वयं से भयभीत।
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यह अत्यधिक पीड़ा मुझे मेरी ही देह में सीमित कर रही है। जैसे में किसी कछुए की भाँति अपनी ही खोल में सिमटती जा रही हूँ। आँखें बन्द हो रही हैं.. आख़िरी लौ को पकड़कर चमक रहे दीपक की भाँती।
मेरी आँखों के आगे मेरा पूरा जीवन दीवार पर टंगी घड़ी की सुई की भाँति घूम रहा है।
पाँव ज़मीन पर रख दूँ तो लगता है मेरी छुअन से यह भूमि बंजर हो जाएगी।
नदी का पानी मेरे स्पर्श से अपनी दिशा बदल लेगा और सूख जाएगा।
जैसे चारों दिशाएं एक ही दिशा में आकर सब कुछ नष्ट कर देंगी।
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रात में मुझे एक पीड़ा और रहती है। तुम्हें एक बार और देख लेने का लालच, एक बार और तुमसे बात करने की चाहत, फिर एक बार और तुम्हारी आवाज़ सुनने की ख़्वाहिश।
आँखें मूंदने से पहले तुम्हें आँखों में भर लेने की आख़िरी इच्छा।
आह! यह मोह ही है जो मेरी देह में आज भी जीवन का कुछ अंश छोड़ रहा है।
छोड़ रहा है पीड़ा, ऐसी पीड़ा जो तुमसे प्रेम चाहती है।
केवल प्रेम।
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तुम मेरे लिए उस ईश्वर की मूरत समान हो.. जिसे छू भर लेने से मुझमें जीवन का संचार होता है।
तुम मुझे देखते हो तो मैं स्वयं को जीवित लगती हूँ।
हाँ! मैं एक बार और जीने लगती हूँ।
-रूपकीबातें
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© रूपकीबातें