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प्रेमयात्रा....♾️
जो मतलब से है,जिसका कोई कारण है, वो निश्चित है, वो समय से बंधा है.. उसका अंत निश्चित है क्योंकि कारण के समाप्त होते ही उसका नष्ट हो जाना निश्चित है उसकी समाप्ति हो जायेगी, किन्तु जिसका कोई कारण नहीं, वजह नहीं उसका आरंभ सरल नहीं होता लेकिन यदि एक बार उत्पति हो गई फिर अंत असंभव है,,समाप्ति अनिश्चित है, जिसका कोई कारण नहीं वो कहां कभी खत्म होगा,और आखिर वो क्यों खत्म होगा क्योंकि उसका कोई उद्देश्य नहीं था ।
और कुछ ऐसा ही होता है प्रेम,प्रेम की ऐसी प्रवृत्ति ही उसको पवित्र, सरल,और सम्मान योग्य बनाती है उसका उद्देश्य सदैव और अधिक प्रतिदिन बढ़ते जाना होता है, अपने प्रेमी को सर्वशक्तिमान, विशेष और हमेशा पूर्ण करने की लालसा होती है जो उद्देश्य पवित्र भी है इसलिए ये कभी समाप्त नहीं होता बढ़ता जाता है प्रतिपल।
प्रेम पवित्र है गीता की तरह इसका मतलब सिर्फ़ ये नहीं है कि प्रेम एक पवित्र भाव है बल्कि ये हमें ज्ञानी बनाता है, हमारे अन्दर की अज्ञानता को दूर करता है, ये ऐसा प्रकाश है जो डर, भय, लोभ, मोह, द्वेष, ईर्ष्या आदि को जलाकर भस्म करता है, खत्म करता है, हमारे मन को स्वच्छ, शान्त और संतुष्टि प्राप्त कराता है।
निस्वार्थ से तात्पर्य है प्रेम की गहराई को समझकर या ना समझते हुए भी लेकिन प्रेमी के हित के बारे में सोचते हुए अपने मन, कर्म, वचन से उसके, उसकी आत्मा के प्रति समर्पित रहना।
प्रेमी से सिर्फ प्रेम की लालसा रखते हुए उसके हितों के बारे में सोचना चाहिए।
मोह रखना तो उसके सुखों का कि उसकी जिंदगी की सब समस्याएं ख़त्म हो जाएं तथा ईश्वर उसकी जिंदगी में खुशियां भर दें।
प्रेम में प्रवेश सरल हो सकता है किन्तु प्रवेश के उपरांत उसमें स्थिर रह पाना, उसको जी पाना और हर परिस्थिति में, हर रुप में, हर भाव के साथ उसके हर कर्म को स्वीकार कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है, किन्तु फिर भी हम करते हैं।
यह साधारण सा दिखने वाला रिश्ता जाने कितनी असाधारण परिस्थितियों से गुजरकर, अनगिनत मुश्किल अड़चनों को पार कर, तमाम परीक्षाओं को पास करके प्रेम की मूलभूत अनुभूति की प्राप्ति तक पहुंचता है।
शुरुआत सरल इसलिए होती है क्योंकि ये हमारी सोच से उत्पन्न होती है किन्तु जिस दिन इसका पहला भाव मन में उत्पन्न होता है हमारी यात्रा उसी समय से प्रारम्भ हो जाती है, फिर कर्म किए जाते हैं और फिर यही कर्म हमारे अन्दर की हमारी आत्मिक शक्ति को बनाने लगते हैं, और ये शक्ति ही संसार के खिलाफ़ खड़े होकर यह स्वीकार कराने में सहायता करती है कि हां ये यदि प्रेम है तो मुझे स्वीकार है, और ये अनुभूति मेरी आत्मा को जाग्रत करती है, पवित्र करती है,निडर,निर्भीक बनाती है,और ये प्रेम अब हमें उस आत्मा के साथ आत्मसात करना है जो आत्मा इसको पूर्ण करती है और वहीं से वो दो आत्माएं प्रेम का अनुसरण कर अपनी प्रेमयात्रा को मुक्ति की ओर ले चलती हैं।
यह सरल बिल्कुल नहीं है यह स्थिति प्राप्त कर पाना आसान नहीं है... इस स्थिति से पहले संघर्ष दो मन करते हैं, फिर दो आत्माएं और फिर प्राप्त होती है यही उपाधि जिसको हम प्रेमपूर्ती या मुक्ति कहते हैं, और इस यात्रा में किया गया संघर्ष इस प्रेम को और अधिक प्रगाढ़, अटूट और पवित्र बनाता है।
तुम मेरे क्या हो यह स्पष्ट करना मैं जरूरी नहीं समझती किन्तु यह कहना चाहती हूं कि "तुम थे, तुम हो और तुम रहोगे, हमेशा, ताउम्र, और अंतिम श्वांस तक"
मैं यह कह सकती थी कि तुम्हारे आने में जितना भी वक्त लगेगा, मुझे स्वीकार है, उसके लिए भले ही तुम्हारा इंतज़ार मुझे जन्मों जन्म करना पड़े... किन्तु ये बात मैं बिल्कुल नहीं कहूंगी क्योंकि मुझे प्रेम है आपकी आत्मा से, आप हर समय मेरे पास ही रहते हैं, मैं अनुभव करती हूं आपकी उपस्थिति को, महसूस करती हूं आपको, मुझे पता है कि हमारे मन एक दूसरे से अलग नहीं हैं और ये मन की शक्ति ही हमारी शक्ति है ।

#मेरीप्रेमयात्रा

© आकांक्षा मगन "सरस्वती"
© ~ आकांक्षा मगन “सरस्वती”